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निमित्त कारण अनन्त रजकण है । देखो । अज्ञानी लोग कर्म का जोर देखते हैं । वास्तव मे जोर आत्मा का ही है । इसलिए हे भव्य | तेरा स्वभाव अनादि अनन्त है । उसका आश्रय ले, तो कल्याण हो. जावे और कर्म का दोष देखे तो कल्याण ना हो ।
(४) तत्त्व निर्णय न करने मे कर्म का दोष नही है, तेरा ही दोष है । जो कर्म का दोप निकालते हैं यह अनीति है । यदि मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो कर्म का दोप ना निकाले । अपना दोष देख -- कर निर्दो स्वभाव का आश्रय ले, तो कल्याण हो जावे ।
(५) जैसे - मुंह टेढा करके शीशे से कहे, सीधा हो जा । तो क्या कभी सीधा होगा ? कभी नही । उसी प्रकार गलती हम करे और कर्म से कहे गलती दूर करो । क्या कभी दूर होगी ? कभी नही । जैसे- हम मुँह को सीधा कर ले, तो शीशे मे भी सीधा दिखाई देगा, उसी प्रकार हम सीधे हो जावे अर्थात् स्वभाव का आश्रय ले ले, तो कर्म स्वय ही सीधा है ।
(६) गिरनार बहुत ऊँचा पहाड़ है। उस पर ८० वर्ष की बुढिया चढे । तो गिरनार पर्वत समाप्त हो जावेगा, परन्तु बुढिया समाप्त ना होगी । उसी प्रकार कर्म की स्थिति प्रवाहरूप से है वह समाप्त हो जावेगी । परन्तु तू अनादिअनन्त रहने वाला समाप्त नही होगा । इसलिए हे भव्य । तू स्वयं अनादिअनन्त है उसका आश्रय ले तो ससार समाप्त हो सकता है । पर का आश्रय ले, तो ससार समाप्त नही होगा ।
(७) दर्शन मोहनीय की स्थिति ७० कोडाकोडी सागरोपम की है। लोग उसे वलवान कहते हैं । देखो । सबसे पहिले दर्शनमोहनीय कर्म हो भागता है । इसलिए हे मात्मा । तू स्वय बलवान है, उसका आश्रय लेते ही प्रथम मोहनीय भागता है और मोह के जाते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय भी भाग जाते है । अत अनन्त चतुष्ट्यमयी अपनी आत्मा का आश्रय ले तो कल्याण हो जाता है ।