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________________ है | उसमे यदि मद कषाय हो यो पापानुबन्धी पुण्य होगा । कपडा -- आहार - औषघादिक तो पुद्गल का कार्य है, उसमे जीव का कुछ. कार्य नही । उस भाव मे एकत्व बुद्धि करे तो मिथ्यात्व सहित का पुण्य बन्ध होता है । इससे अगले भव मे शरीर की अनुकूलता, रुपयापैसे - महल आदि का सयोग मिलेगा, धर्म की प्राप्ति नही होगी । [(३) यात्रा करूँ, पूजा करूँ, शास्त्र पढ, ऐसा विचार करे तो इसका क्या फल होगा और क्या फल नही होगा ? ] उत्तर - यात्रा करूँ, भगवान की भक्ति करूँ, पूजा करू, शास्त्र पढ़ें, आदि का भाव मन्द कषाय रूप पुण्य का बन्ध है । शरीर के चलने, पाठ आदि बोलने, हाथ जोडने आदि की क्रिया तो पुद्गल की है । मात्र जो भाव किया है उससे अनुकूल सयोग मिलेगा, धर्म की प्राप्ति ना होगी । ( जो यात्रा करके आया और आते ही मुनीम पर गुस्सा हो जावे, तुमने हमारा खाने का इन्तजाम नही किया, पैर दबाने वाले का इन्तजाम नही किया, ऐसे जीव की बात यहाँ पर नही हैं, क्योकि इससे तो पाप का ही वन्ध होता है | ) ू [ ( ४ ) अध्यात्म शास्त्र का अभ्यास करलूँ ताकि मेरी आत्मा का भला हो, तो इसका फल क्या होगा और क्या नही होगा ? ] उत्तर - अध्यात्म शास्त्रो का अभ्यास करके वस्तुस्वरूप समझकर अपनी आत्मा का हित करलूं ऐसा भाव पूर्वक जो अभ्यास करता है यदि उसका विशेष पुरुषार्थ बढ जावे तो तुरन्त धर्म की प्राप्ति हो जाती है। यदि तत्त्व का अभ्यास करते-करते आयु पूरी हो जावे, तो बाद मे सच्चे देव गुरु का ऐसा सयोग मिलेगा कि जिनके निमित्त से सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हो जावेगी । (जो जीव अध्यात्म शास्त्र का अभ्यास इसलिए करता है कि लोग मेरा मादर करे, मैं बडा कहलाऊँ,सब शास्त्र जबानी याद हो जावे, मुझे रुपया-पैसा, आदर-मान आदि : की प्राप्ति हो, उस जीव की बात यहाँ पर नही है ।)
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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