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( २८६ ) एक समय मे चारो वाते (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, निमित्त) होती रही। है, हो रही है और होती रहेगी यह पारमेश्वरी व्यवस्था है । जव सद मे ऐसा होता ही है, तव करना क्या रहा ? मात्र जानना-देखना रहा, यह तत्त्व अभ्यास का फल है।
प्रश्न १५६-तत्व के अभ्यास का दूसरा फल क्या है ?
उत्तर-तत्व के अभ्यास से ससार का कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट ना प्रतिभास । तव स्वयमेव धर्म उत्पन्न होकर वृद्धि होकर, पूर्णता की प्राप्ति होती है। जव एक-एक गुण मे चार वाते अनादिअनन्त होती हैं, होती रहेगी, और होती रही है ऐसा मानसिक ज्ञान लेकर सूक्ष्म रीति से गहराई मे उतरे तो, तुरन्त सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
प्रश्न १५७-सा शुभभाव करे-तो कल्याण का अवकाश है और कैसे-कैसे भाव का कैसा कैसा फल है ?
उत्तर-विचारियेगा । [(२) कोई जीव दान देता है। इसलिए कि यह लोग बार-बार तग करते हैं- लो ले जावो । क्या वह दान है, उसका क्या फल होगा और क्या फल नहीं होगा ?]
उत्तर--यह तो तोव कपाय का भाव है। रुपया गया रुपयो के कारण, वह तो जड को क्रिया है। उसमे जीव का कुछ कार्य नही, वह तो क्रियावती शक्ति का कार्य है। परन्तु मेरे को विशेष तग ना करे इसलिए क्रोध पूर्वक दान दिया, इससे तो पाप का ही वन्ध है। इससे अगले भव मे तिर्यचादि का सयोग मिलेगा, वहाँ तुझे भी लोग तंग करने पर रोटी का टुकडा डाल देगे; बस इसका फल यह है इससे धर्म की प्राप्ति नही होगी।
[(२) मेरा नाम हो, अगले भव मे मुझे विशेष सपत्ति मिले, ऐसा विचार कर दान देवे, तो उसका क्या फल होगा और क्या फल नही होगा ?]
उत्तर-जो जीव कपडा आहार औषधादिक देने का भाव करता