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________________ ( २७० ) का आत्मा से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही है । तब जडेश्वर जाना । (२) विभावेश्वर - हिसादि भाव, अहिंसा आदि भाव विभावेश्वर कहलाते है । अज्ञानी को हजारो तीर्थंकरादि भी ज्ञानी नही बना सकते, क्योकि अज्ञानी विभाव करने मे भी ईश्वर है । (३) स्वभावेश्वर - अनन्त गुणो का पिण्ड जो अपनी आत्मा है । वह मेरा स्वभावेश्वर है । जीव स्वभाव रूप परिणमन करे, उसे अनन्त प्रतिकूलता रुकावट नही कर सकती है। ऐसा जानकर अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति हो, तव तीनो ईश्वरो का पता चलता है । प्रश्न ११० -- धर्म प्राप्ति के तीन बोल कौन-कौन से ध्यान मे रखना चाहिए ? उत्तर- ( १ ) अनादि काल से आज तक अनन्त शरीर धारण किये, परन्तु एक रजकण भी अपना नही बना । रजकण कहता है मैं तेरा स्वामीपना स्वीकार नही करता हू । लेकिन तू ज्ञान स्वभावी आत्मा होने पर भी अपनी मूर्खता से मेरा स्वामी बनता है । तू मेरा स्वामी वन तो नही सकता । परन्तु मान्यता मे स्वामी बनने से तुझे आकुलता हुए बिना नही रहेगी। जब तक तू मेरा स्वामीपना मानता रहेगा, तब तक चारो गतियो मे घूम-घूम कर निगोद की सैर करता रहेगा । (२) अनादिकाल से आजतक असख्यात लोक प्रमाण विकार भाव किया लेकिन वह का वह विकार नही रहा । जैसे- पाँच दिन पहले हमारी किसी से लड़ाई हुई, उस समय जो लाल-पीले हुए थे अब आज विचार करने पर वैसा लाल-पीना पना दृष्टि मे नही आता है अर्थात् वह का वह विकार नही रहता । विकार आकुलता का कारण है शुभाशुभ भाव दोनो आकुलतारूप है दुखरूप है इसलिए पात्र जीवो को इनसे दृष्टि उठा लेनी चाहिए । (३) अनादिकाल से आजतक एकरूप रहने वाला जो अपना
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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