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रहूगा या नहीं। इसलिए जो कहता है धर्म फिर करूँगा, वह कभी धर्म को प्राप्त न कर सकेगा और ऐसे विचारो मे ही चारो गतियो मे घूमता हुआ निगोद चला जावेगा।
(१) जैसा एक आदमी था। उसकी स्त्री बडी लडाका थी। उस आदमी ने एकबार कबीर से कहा-क्या गृहस्थी मे धर्म नही हा सकता ? तब कबीर उसे अपने घर ले गया और उससे कहा, घर मे धर्म हो सकता है । तब उस आदमी ने कहा, तुम मुझे प्रत्यक्ष दिखाओ तब मैं मानू गा । कबीर बुनने का काम करता था। उसने दिन के १२ बजे अपनी स्त्री से कहा-लालटेन लाओ। स्त्री लालटेन लेकर आई, कबीर ने उसकी तरफ देखा भी नही। एक घण्टे बाद कहा-आप इतनी देर क्यो खडी रही । लालटेन जलाओ। उसने लालटेन जलाई, तब वह एक घण्टा फिर खडी रही । तव कवीर ने कहा, अच्छा लालटेन को ले जाओ। तब उस आदमी ने कहा, मैं भी तुम्हारे पास रह कर धर्म सीखूगा, लेकिन जरा घर का, पुत्रो का, लडकियो का इन्तजाम कर आऊँ।
उसे जाते हुए देखकर कबीर ने आश्रम देखने को कहा और तुम सब तरफ घूमो, फिरो । परन्तु इस घडे को मत छूना । जरा मैं अभी आता हू । कबीर बाहर चले गये । उसके हृदय मे घडे को ही देखने की इच्छा रही। जैसे ही उसने घडे को उघाडा तो उसमे से तीन बडेवडे मैढक उछलकर निकल पडे । वह उन्हे पकडने के लिए दौडा। उनमे से दो तो भाग गये, एक को पकडकर लाया और उस घडे मे रखने लगा। तो उसमे से तीन और मैढक निकलकर भाग गये; उसी प्रकार वह जीव विचार करता है-अभी तो बच्चा है, खूब खाओपीओ । जवानी मे विषय भोग करो, आनन्द लो। जरा लडका हो जावे, बडा हो जावे, जरा इसका व्याह कर दें। आदि झगडो,मे ही पूरा मनुष्य जन्म खो देता है। हे भव्य आत्मा । धर्म के कार्य को प्रथम कर, अगला समय आया या ना आया, कौन जान सकता है।