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कल्पमात्र है और दो इन्द्रियादि से पचेन्द्रिय पर्यन्त प्रसो मे साधिक दो हजार सागर है।" इस प्रकार अधिकाश तो एकेन्द्रिय पर्यायो का ही धारण करना है। अन्य पर्यायो की प्राप्ति (अस पर्यायो को प्राप्ति) तो काकतालीय न्यायवत् जानना ।]
प्रश्न ६६-क्या द्रव्यकर्म-नोकर्म-भाधकर्म से ज्ञान की हानि-वृद्धि होती है ?
उत्तर-नही होती है, क्योकि द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म से ज्ञान की हानि-वृद्धि का सम्बन्ध नही है। (१) नोकर्म जैसे-एक आदमी का पैर कट गया, शरीर के अग मे तो कमी हुई। परन्तु कट गयाऐसा ज्ञान तो हुआ। किसी के पास ५० हजार रुपया था उसमे से २५ हजार रुपये घट गये । परन्तु घट गये-इतना ज्ञान तो वढ गया। इस लिए नोकर्म मे कमी हो तो ज्ञान घट जावे-यह बात गलत है। (२) द्रव्यकर्म-कोई कहे, ज्ञानवरणीय के उदय से ज्ञान रुकता है। तो विचागे । पहिले कर्म सत्ता मे था अब उदय मे आया। उदय मे आया-इतना ज्ञान वढा-इसलिए द्रव्यकर्म के कारण ज्ञान घटता है या वढता है-ऐसा नही है। (३) भावकर्म-चारित्रगुण का विभाव रूप कार्य है । ज्ञान हुआ वह ज्ञान गुण का कार्य है। राग हुआ और ज्ञान हुआ दोनो का समय एक है। ज्ञान गुण की पर्याय ने राग को जाना । तो बिचारो ! इतना ज्ञान बढा, इसलिए भावकर्म के कारण भी ज्ञान मे रुकावट नही होती है। इससे निश्चित होता है कि आत्मा को ज्ञान और सुख उत्पन्न करने मे शरीर आदि नोकर्म, पाँचो इन्द्रियो के विषय, द्रव्यकर्म और भावकर्म किंचित् भी कार्यकारी नही है । एकमात्र नोकर्म, भावकर्म, द्रव्यकर्म से दृष्टि उठाकर अपने ज्ञायक स्वभावी पर ही दृष्टि देने से सम्यग्ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख उत्पन्न होता है।
प्रश्न १००-संसार परिभ्रमण का अभाव कैसे हो? . .. - उत्तर-(१) स्व 'मे -एकता (२) पर से भिन्नता (३) करो