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सम्यदृष्टि की स्थिति घटी, अनुभाग वढा । अस की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो हजार सागर है ।
(२) मिथ्यादृष्टि के पुण्य की १५ कोडा-कोडी सागरोपम स्थिति बहुत ज्यादा है इतना पुण्य भोगने का स्थान है नही । तो मिथ्यादृष्टि त्रस की स्थिति पूर्ण होने से पहले-पहले शुभ का अभाव करके, अशुभ करके एकेन्द्रिय में चला जावेगा-जिसका दृष्टान्त द्रव्यलिंगी मुनि है। वह भगवान के कहे हुए व्रतादि का अतिचार रहित पालन करता है
और उससे शुभभाव द्वारा नववे अवेयक तक मे चला जाता है परन्तु फिर निगोद चला जाता है "जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन विन दुख पाय । तह ते चय थावर तन धरै, यो परिवर्तन पूरे करै ।।" [ छहढाला ] मिथ्यादृष्टि को इतना लम्बा पुण्य भोगने का स्थान नही है।
(३) सम्यकदृष्टि को अन्त कोडा-कोड़ी सागरोपम का उत्कृष्ट पुण्य बँधता है। अन्त कोडा-तोडी सागरोपम से त्रस की स्थिति कम है, इतना पुण्य भोगने का स्थान है नही। तो सम्यग्दृष्टि पुण्य का अभाव करके अल्पकाल मे पूर्ण शुद्ध होकर नियम से मोक्ष चला जाता है-जिसका दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि है जो नियम से मोक्ष प्राप्त करता है ।
(४) अब जिसको मनुष्यभव मिला; दिगम्बर धर्म मिला, सच्चेदेव-गुरु-शास्त्र का समागम मिला। ऐसे समय मे जो जीव अपने स्वभाव का आश्रय नही लेता है परन्तु निमित्त से कार्य होता है या शुभभाव करते-करते धर्म की प्राप्ति वृद्धि और पूर्णता होती है ऐसा मानता है । शुभभाव से भला होता है ऐसा माने तथा आत्मा-आत्मा की बातें तो करे परन्तु अपना आश्रय ना ले, तो समझ लो उसकी त्रस अस की स्थिति पूरी होने को आई है। हे भव्य ! तू सावधान होजा, सावधान होजा, ऐसा अवसर मिलना कठिन है और सावधान नहीं हुआ तो निगोद तैयार है। [मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३२ मे लिखा है "परिभ्रमण करने का उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरो मे असख्यात