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केवलज्ञान है ! इसके बदले जो जीव "बालकपने मे ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरणी रत रह्यो । अर्धमृतक सम वूढापना, कैसे रूप लखे आपनो ।" यदि मनुष्यभव होने पर धर्म की प्राप्ति ना की, तो त्रस की स्थिति पूर्ण होने वाली है निगोद तैय्यार है। सावधान सावधान | प्रश्न ६७ - मोक्षमार्ग प्रकाशक मे मनुष्यभव के इस विषय पर क्या लिखा है ?
उत्तर - एक मनुष्य पर्याय मे कोई अपना भला होने का उपाय करे तो हो सकता है जैसे - काने गन्ने की जड व उसका ऊपरी फीका भाग तो चूसने योग्य ही नही है और बीच की पोरी कानी होने से वे भी नहीं चूसी जाती । कोई स्वाद का लोभी उन्हें विगाडे तो बिगाडो, परन्तु यदि उन्हे बोदे, तो उनसे बहुत से गन्ने हो और उनका स्वाद बहुत मीठा आवे, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का बालकवृद्धपना तो सुखयोग्य नही है और वीच की अवस्था रोग क्लेशादि से युक्त है वहाँ सुख हो नही सकता । कोई विषय सुख का लोभी उसे विगाढे तो बिगाडो परन्तु यदि उसे धर्म साधन मे लगाये, तो बहुत उच्च पद को पाये वहाँ सुख बहुत निराकुल पाया जाता है । इसलिए यहाँ अपना हित साधना, सुख होने के भ्रम से मनुष्यभव को वृथा ना खोना |
प्रश्न १८ - मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि से ज्यादा पुण्य का बंध होता है क्या ऐसा शास्त्रों मे आया है अथवा त्रस की स्थिति तो बहुत थोड़ी है, उसे काकतालीय न्यायवत् कही, वह क्यो कही जाती
है ?
उत्तर - ( १ ) मिथ्यादृष्टि को साता का उत्कृष्ट बघ १५ कोडाकोडी सागरोपम का बँधता है । सम्यग्दृष्टि को साता का उत्कृष्ट वध अत कोडा-कोडी सागरोपम का बघता है । अज्ञानी कहता है देखो । मिथ्यादृष्टि का पुण्य कितना लम्बा बधा है । अज्ञानी को मालूम नही कि मिथ्यादृष्टि की स्थिति बढी, ससार बढ़ा। और