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________________ (-२५७ दोषाधरणयोहानिनिः शेषास्त्यतिशायनात् । । क्वचिद्यया स्व हेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ सामान्य अर्थ-हे भगवन | आप हमारी दृष्टि मे मात्र इसलिए महान नही हो कि (१) आपके दर्शनार्थ देवगण आते है। (२) आपका गमन आकाश मे होता है और (३) आप चवर-छत्रादि विभूतियो से विभूषित हो। क्योकि यह सब तो मायावियो मे भी देखे जाते है ।-२॥ हे भगवन् ! आपकी महानता तो वीतरागता और सर्वज्ञ के कारण ही है। वीतरागता और सर्वज्ञता असम्भव नही है। मोह, राग-द्वेषादि दोष और ज्ञानावरणादि आवरणो का सम्पूर्ण अभाव सम्भव है । क्योकि इनकी हानि क्रमश होती देखी जाती है । जिस प्रकार लोक मे अशुद्ध कनक-पापाणादि मे स्व हेतुओ से अर्थात अग्नि तापादि से अन्तर्बाह्य मल का अभाव होकर स्वर्ण की शुद्धता होती देखी जाती है। उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप ध्यानाग्नि के ताप से किसी आत्मा के दोषावरण की हानि होकर वीतरागता और सर्वजता प्रगट होना सम्भव है ॥४॥ हे भगवान | आपने एक समय मे प्रत्येक द्रव्य मे उत्पाद-व्ययध्रौव्य बताया है और यह सर्वज्ञ की निशानी है। प्रश्न ६०–पया मिथ्यात्वी भगवान को नहीं पूज सकता है ? उत्तर-यथार्थतया नही पूज सकता है, क्योकि मुनिसुव्रतनाथ की स्तुति करते हुए स्वयभूस्तोत्र मे श्लोक न० १३६ मे लिखा है कि - हे जिन सुर असुर तुम्हे पूजें । मिथ्यात्वी चित्त नहीं तुम्हे पूर्जे ॥ जिस जीव ने अपनी आत्मा का अनुभव किया, उसने ही सर्वज्ञ को माना और जाना। क्योकि सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की श्रद्धा किये बिना सर्वज्ञ और सर्वदर्शी की श्रद्धा नही होती है। इसलिए सम्यग्दर्शन होने पर ही भगवान को सत्यरूप से माना, इससे पहले नही माना । प्रवचनसार गा० ८० मे कहा है कि
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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