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उत्तर-सम्यग्दर्शन होते ही पूर्णता हो जावे तो निम्न दोष आते हैं। (१) सम्यग्दर्शन होते ही सिद्ध हो जावे, तो किसी जीव को ज्ञानी के उपदेश का निमित्त नही बनेगा इसलिए यह मान्यता मिथ्या है। (२) श्रावकपना, मुनिपना श्रेणीपना और अरहतपने के अभाव का प्रसग उपस्थित होवेगा। (३) गुणस्थानो के अभाव का प्रसग उपस्थित होवेगा। (४) शास्त्रो की रचना नही होगी, क्योकि विशेष रूप से श्रावक और भावलिंगी मुनियो को शास्त्रादि रचने का विकल्प-हेय-बुद्धि से आता है। इसलिए सम्यग्दर्शन होते ही पूर्णता होनी चाहिए, यह वात मिथ्यादृष्टियो की है और उनका कहना 'असत्यार्थ है।
प्रश्न ८६-ध्रुव धाम की धुन रूपी ध्यान यह धर्म है। इससे क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-एक मात्र अनादि अनन्त जो परम पारिणामिक ध्र वधाम जो आत्मा है उसी के आश्रय से धर्म की शुरुआत, वृद्धि और पूर्णता होती है और किसी के आश्रय से नही होती है।
(१) जैसे - ऊपर ध्र वतारा है। उसके चारो तरफ सात तारे चक्कर लगाते रहते हैं परन्तु वह ध्र वतारा एक ही जगह रहता है। समुद्र मे उस ध्र वतारे के सहारे जहाज भी चलते हैं, उसी प्रकार 'अनादि अनन्त ध्र वधाम है । उसी के आश्रय से धर्म की शुरुआत वृद्धि पूर्णता होती है औरो के आश्रय से नही।
२) जैसे-एक आदमी के हाथ मे एक पक्षी था। उसने वृक्ष पर दो पक्षी वैठे देखे । देखकर उसने अपने हाथ का पक्षी छोड दिया और उन दोनो को पकडने दौडा तो वे दोनो भी उड गये, उसी प्रकार अनादि काल से अज्ञानो अपना जो अनादिअनन्त ध्र वधाम आत्मा है, उसे छोडता है 'अध्र व स्त्री-पुत्र-धनादि, शुभाशुभभावो का आश्रय करता है तो दुखी होता है। इसलिए हे आत्मा | जो तेरा ध्र वधामरूपी अनादि अनन्त आत्मा है उसका आश्रय ले, तो भला हो