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रहता है, 'किसी पदार्थ को इष्ट मानता है और किसी को अनिष्ट मानता है जबकि कोई भी पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नही है, इसी कारण यह जीव भाव मरण करता आ रहा है और निगोद का पात्र वनता रहता है ।
प्रश्न ७१ - राग द्व ेष की उत्पत्ति का क्या कारण है ?
उत्तर - आत्म तत्त्व से छूटकर, परद्रव्य का लक्ष करना वह रागद्वेष की उत्पत्ति का कारण है और पुद्गल कर्म के प्रदेशो मे स्थित होना यह निमित्त कारण है । (समयसार के शब्दो मे)
हर कार्य दो कारण होते हैं; (१) उपादान कारण, (२) निमित्त
कारण ।
(१) रागद्वेष की उत्पत्ति मे अनादिकाल से एक-एक समय करके निमित्तकारण मोहनीय कर्म है । (२) उपादानकारण - अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय न लेना अर्थात् उससे खिसक जाना है । वास्तव मे आत्म स्वभाव से भ्रष्ट होना ही राग द्व ेष की उत्पत्ति का उपादान कारण है । जब उपादानकरण होता है उस समय निमित्त मोहनीय कर्म का उदय होता ही है ऐस सहज ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है ।
प्रश्न ७२ - राग-द्वेष के अभाव मे उपादान और निमित्त क्या
है ?
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उत्तर - मोहनीय कर्म का अभाव निमित्त कारण है और त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय उपादान कारण है ।
प्रश्न ७३ - साधक जीव को राग-द्वेष की उत्पत्ति मे क्या कारण
है ?
उत्तर - ४-५-६ गुणस्थान मे अपनी-अपनी भूमिका अनुसार शुद्ध परिणति तो निरन्तर रहती है। श्रद्धा गुण की तो निर्मल पर्याय सौ फीसदी पूरी-पूरी है । लेकिन साधक को चारित्र गुण की एक समय की पर्याय मे दो धारा चलती है; एक शुद्ध, दूसरी अशुद्ध । इसकी