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________________ ( २४४ ) नो उसी भव से मोक्ष हो जाता। (२) तीर्थकर प्रकृति का उदय १३वे गुणस्थान मे आता है, तो विचारी | तीर्थकर पद का वध, तीर्थकर के लिए क्या कार्यकारी रहा ? कुछ भी नहीं, क्योकि उनको पो समवशरणादि ऋद्धि की प्राप्ति हुई, वह तो उनका ज्ञान का ज्ञेय ना। प्रश्न ६६-क्या भव्य जीवो को पार करने के लिए भी तीर्थकर पद कार्यकारी नहीं है ? उत्तर-नही है, गयोकि कोई जीव भगवान के समवशरण में दिव्य ध्वनि सुन रहा है, उसका उपयोग दिव्यध्वनि की ओर रहे तो वह धर्म प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए तीर्थकर पद से भी दृष्टि उठावो । एकमात्र अपने स्वभाव का आश्रय लो तो ही धर्म की शुरुआत, वृद्धि और पूर्णता होती है । प्रश्न ६७-आत्मा में बंध का निमित्तकारण कौन नहीं है और कौन है ? उत्तर-(१) कर्म आठ है, इनमे से अघाति कर्म तो वध के कारण नहीं है, क्योंकि अघाति के कारण सयोग मिलता है। (२) घातियो मे से ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय और अन्तराय का क्षयोपशम किसी ना किसी अश मे सर्व ससारी जीवो को प्रगट है । इन तीनो की हीनादिक अवस्था भी वध का कारण नहीं है। ज्ञानदर्शन-वीर्य का जितना उघाट है, वह भी वध का कारण नहीं है, क्योकि वह स्वभाव का अश है । यदि स्वभाव वध का कारण हो तो स्वभाव त्रिकाल है, फिर वध भी त्रिकाल हो जावेगा, इसलिए जितना उघाड है वह बध का कारण नहीं है। ज्ञान-दर्शन-वीर्य का जितना अभाव है वह भी बघ का कारण नही है। (३) अव रहा मोहनीय । उसमे भी विशेष बन्ध का कारण दर्शनमोहनीय का उदय है और चारित्र मोहनीय के उदय से जो रागद्वप होता है वह भी वध का
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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