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________________ 1 ( २३८ ) आते है चले जाते है इसलिए रागादि को पुद्गल कहा है । ( ३ ) रागादि आत्मा के स्वभाव मे विघ्नकारक है अत रागादि को आत्मस्वभाव से विपरीत होने से पुद्गल कहा है । ( ४ ) जाने सो चेतन और न जाने सो अचेतन । रागादि अपने को भी नही जानता, पर को भी नही जानता । इसलिए रागादि को अचेतन होने ने पुद्गल कहा है । (५) जो निकल जाता है, वह अपना नही । रागादि आत्मा से निकल जाता है, इसलिए रागादि को पुद्गल का कहा है । याद रहे - रागादि अज्ञानी जीव की पर्याय मे होता है यदि वह स्वभाव का आश्रय लेकर उनको दूर करे तो रागादि मुदगल का हूं ऐसा उनका कहना सार्थक है । प्रश्न ३७ - रागादि को आपने पुद्गल कहा; क्या रागादि मे स्पर्श-रस-गध-वर्ण पाया जाता है ? उत्तर- नही - रागादि मे स्पर्शदि नही है परन्तु जड है । वास्तव मे रागादि ना जीव का है और ना पुद्गल का है । एक कहावत है कि रागादि जीव के पास गए, तुम हमे अपने मे मिला लो जीव ने कहा. क्या तुम्हारे मे चेतनपना है वह वहाँ से भाग गया। फिर रागादि पुद्गल के पास गया तुम हमे अपने अपने मे मिलालो तव द्गल ने कहा, क्या तुम्हारे मे स्पर्श-रस-गध वर्ण हैं तो वह वहाँ सं भी भाग गया अर्थात् त्रिशकु की तरह रागादि बीच मे लटकता रहता है । प्रश्न ३८ - आप कहते हो पर वस्तु से आत्मा का कोई सम्बन्ध नही है और आत्मा पर वस्तु के ग्रहण त्याग से रहित है । तो आत्मा रागादिक का ग्रहण तो न करे, किन्तु छोड़ तो सकता है ना ? उत्तर - बिल्कुल नही - ( १ ) जैसे - जिस समय लडका उत्पन्न हुआ क्या उसी समय वह मर सकता है? आप कहेगे, नही, उसी प्रकार जिस समय रागादि उत्पन्न हुआ उसी समय उसका अभाव नही हो सकता । भूत का राग है ही नही, वह तो समाप्त हो गया है । भविष्य का राग आया ही नही । उसको क्या छोडे ? अत आत्मा
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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