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________________ 1 यदि हम अपने में दोष नही देखना चाहते, तो अपने स्वभाव का आश्रय ले । (३) जैसे एक स्त्री जल भरने गयी । रास्ते मे पीतल का कलशा गिर गया उसमे खडडा पड गया । यदि उस खडडे को ऊपर उठाने के लिए ऊपर से हथौडा मारे, तो वह ऊपर नही आवेगा, बल्कि बढ़ता चला जावेगा । मात्र उसे ठीक करने का उपाय अन्दर से चोट मारे तो ठीक हो सकता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव सुखशान्ति - ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए बाह्य सामग्री, विकार की ओर दृष्टि करते है तो उन्हे सुख-शान्ति ज्ञान प्राप्त नही होता है । जिसमे से सुख-शान्ति ज्ञान आता है यदि उसमे दृष्टि दें, तो ही उसकी प्राप्ति हो सकती है । (४) आचार्यकल्प १० टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक मे कहा है कि "तत्त्व निर्णय न करने मे किसी कर्म का दोष नही, तेरा ही दोष है और जो अपना दोष कर्मादिक को लगाता है तो तू स्वय महन्त होना चाहता है सो जिन-आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नही है ।" मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१२] (५) जैसे - कोई अपने हाथ मे पत्थर लेकर अपना सिर फोड ले, तो पत्थर का क्या दोष ? उसी प्रकार जीव मोह राग द्वेष नही, अपना ही दोष है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ६० ] (६) समयसार कलश २२० तथा २२१ मे लिखा है कि जीव का ही दोष है, कर्मादि का नही । जो पर का दोष देखते है वह मोह नदी को कभी भी पार नही कर सकते हैं । इसलिए हे भव्य ? अपनी पर्याय मे दोष अपने अपराध से है, दूसरे के कारण नही ऐसा जानकर अपने स्वभाव का आश्रय ले, तो दोष रहित स्वभाव दृष्टि मे आवे, धर्मं की प्राप्ति हो तब अनादि भूल मिटे | प्रश्न १६ - 'जबकि ज्ञान से ज्ञान होता है' तब वाणी सुनो, सत्समागम करो, ऐसा उपदेश आप क्यो देते हैं ?
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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