SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । २२२ । प्रश्न ७ - संयोगादि के सम्बन्ध मे समयसार कलश १७३ मे क्या लिखा है ? उत्तर- "मै मारू, मैं जिलारू, मैं दुखी करू, मैं सुखी करूं, मैं देव, मैं मनुष्य, इत्यादि है जो मिथ्यात्वरूप असख्यात लोक मात्र परिणाम वे समस्त हेय हैं । परमेश्वर केवलज्ञान विराजमान, उन्होने ऐसा कहा है । " प्रश्न ८ - संयोगादि के सम्बन्ध मे समयसार कलश १७४ मे क्या लिखा है ? उत्तर- "अहो स्वामिन । अशुद्ध चेतनारूप है राग-द्वेष, मोह इत्यादि असख्यात लोक मात्र विभाव परिणाम, वे ज्ञानावरणादि कर्म वध के कारण है ऐसा कहा, सुना, जाना, माना । कैसे हैं वे भाव t ? शुद्ध ज्ञान चेतना मात्र है जो ज्योतिस्वरूप जीव वस्तु उससे बाहर है । प्रश्न - सयोगादि के सम्बन्ध मे समयमार कलश १७८ मे क्या लिखा है ? उत्तर--'शुद्ध स्वरूप उपादेय है, अन्य समस्त पर द्रव्य हेय है ।" प्रश्न १०- - संयोगादि के सम्बन्ध मे समयसार कलश १६७ में क्या लिखा है ? उत्तर- "परद्रव्य सामग्री मे है जो अभिलाषा वह केवल मिथ्यात्व रूप परिणाम है ऐसा गणधर देव ने कहा है ।" प्रश्न ११ - संयोगादि के सम्बन्ध मे लौकिक दृष्टान्त देकर समझाइये ? उत्तर- [ अ ] वर्तमान मे एक कसाई हजार गायो को मारता है । उसके बदले में उसे दो हजार रुपया मिलता है। गायो को मारने का भाव पाप भाव है । क्या पाप भाव से रुपयो की प्राप्ति का सयोग सम्बन्ध हो सकता ? कभी भी नही । [आ] डाक्टर एक मेढक चीरता है, उससे ज्ञान का उघाड देखा जाता है । यदि सौ मेढक
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy