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उत्तर--"मैं देव, मैं मनुष्य, मैं तिर्यंच, मै नारकी, मै सुखी, मैं दुखी ऐसी कर्म जनित पर्यायो मे है आत्मबुद्धिरूप जो मग्नपना उसके द्वारा कर्म के उदय से जितनी क्रिया होती है। उसे मै करता हू मैने किया है, ऐसा करू गा ऐसे अज्ञान को लिए हुए मानते है। वे जीव कैसे हैं ? आत्मघाती हैं।"
प्रश्न ४-संयोगादि के सम्बन्ध में समयसार कलश १७० मे क्या लिखा है ?
उत्तर-"इस मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्वरूप है जो ऐसा परिणाम कि इस जीव ने इस जीव को मारा, इस जीव ने इस जीव को जिलाया ऐसा भाव ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध का कारण होता है। ऐसा भाव कर्म बध का कारण क्यो है ? ऐसा भाव मिथ्यात्वभावल्प होने से कर्मबन्ध का कारण है।"
प्रश्न ५-संयोगादि के सम्बन्ध मे समयसार कलश १७१ मे क्या लिखा है ?
उत्तर-'मिथ्याप्टि जोव अपने को जिस रूप नहीं आस्वादता ऐसी पर द्रव्य की पर्याय व अपना शुभाशुभ विकल्प त्रैलोक्य मे है हो नही । यह परिणाम कैसे हैं ? झूठा है, क्योकि मारने को कहता है, जिलाने को कहता है । तथापि जीवो का मरना-जीना अपने-अपने कर्म के उदय के हाथ है। इसके परिणामो के अधीन नही है । यह अपने अज्ञानपन को लिए हुए ऐसे अनेक झूठे विकल्प करता हैं।"
प्रश्न ६-सयोगादि के सम्बन्ध मे समयसार कलश १७२ मे क्या लिखा है?
उत्तर-"जिस मिथ्यात्वरूप परिणाम के कारण जीवद्रव्य आपको मैं देव, मैं मनुष्य, मैं क्रोधी, मैं मानी, मैं सुखी, मै दुखी, इत्यादि नानारूप अनुभवता है । आत्मा कैसा है ? कर्म के उदय से हुई समस्त पर्यायो से भिन्न है। ऐसा है यद्यपि अज्ञानी कर्म के उदयरूप पर्यायो को आपरूप अनुभवता है।