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श्रीमद् ने पूछा-(१) सोने का समय मिलता है ? हां, मिलता है। (२) घूमने का समय मिलता है ? हाँ मिलता है। (३) रोटी खाने, पानी पीने का समय मिलता है ? हां, मिलता है। (४) अखबार पढ़ने का समय मिलता ? हाँ, मिलता है। (५) वही देखने का समय मिलता है ? हॉ, मिलता है। (६) दुकानदारी का समय मिलता है ? हाँ, मिलता है।
अरे भाई । तेरी ऐसी मान्यता है कि उपरोक्त कार्य किये विना मै दुखी हो जाऊँगा, अत इन सबके लिए समय निकलता है यह तो दृष्टान्त है, उसी प्रकार यदि तेरी समझ मे आ जावे कि आत्मधर्म किए बिना मेरे को अनन्त काल तक दुख भोगना पडेगा तो धर्म करने के लिए मुझे टाइम नहीं मिलता, ऐसी बहाने बाजी कभी नहीं करोगे। तात्पर्य यह है कि धर्म करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए।
सम्यक्त्वी सर्वत्र सुखी
सम्यग्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है; परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग मे रहना भी शोभा नहीं देता, क्योकि आत्मभाव बिना स्वर्ग में भी वह दुःखी है । जहाँ आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है।
[सारसमुच्चय-३६]