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निमित्त होती है। इस प्रकार २४ घण्टो मे साढे नौ घण्टो से ज्यादा समय वाणी खिरती है। उसमे गणधर की हाजरी अवश्य होती है। हम कहे, हमने समझ लिया। ऐसा जब तक परलक्षी ज्ञान का शास्त्रीय अभिनिवेश रहता है । तब तक वह धर्म प्राप्त करने का पात्र नही कहा जा सकता है।
(इ) मैं लोगो के काम बडी हुश्यारो से पार उतार देता हूँ। जिसकी ऐसी बुद्धि रहे वह धर्म पाने का पात्र नहीं कहा जा सकता
* प्रश्न ४-लोकमान्य धर्म श्रद्धावानपना' को स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर-लोकमान्य धर्म श्रद्धावानपना अर्थात लोग जिसे धर्म कहें। जैसे यह सात प्रतिमाधारी है, यह ११ प्रतिमाधारी है, यह २८ मूलगुणो का पालन करता है, यह महीनो का उपवास करता है, यह दिन में तीन बार सामायिक करता है, यह करोडो रुपयो का दान करता है, यह बडा दयालु है, यह अपने पास एक वस्त्र भी नहीं रखता है, ससार की दृष्टि में यह महात्मा बन जाता है । जीव जब तक दृष्टि मे इन सव शुभभावो को हलाहल जहर का प्याला न जाने, तब तक वह धर्म पाने का पात्र नहीं कहला सकता है।
(अ)-जिन बातो से हम धर्म मानते आ रहे हैं। आपने तो उन सब बातो का निषेध कर दिया। फिर अब हम क्या करें ?
उत्तर-लोक मे अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि जीव परलक्षी ज्ञान और पुण्य की मिठास मे ही अपना कल्याण होना मानते हैं। इसीलिए वे एक-एक समय करके अनादि से ससार के पात्र हो रहे हैं । उनके कल्याण के निमित्त कहा है, कि जब तक जीव को परलक्षी ज्ञान और पुण्य की मिठास मे दृष्टि रहेगी। तब तक धर्म पाने का अधिकार नही है। इन चारो मे से किसी भी प्रकार की जरा भी मिठास रहेगी तब तक उसके मिथ्यात्व का नाश नही होगा । चाहे वह द्रव्यलिंगी मुनि कहलावे, तो भी वह ससार का ही पात्र बना