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थी एक बीडी का मूल्य एक पाई होता था। तब श्रीमद ने कहा अरे भाई । जो आत्मा की कीमत एक पाई से भी कम मानते है वह भगवान की वाणो सुनने लायक नही है। इसलिए पहले नम्बर की लायकात 'वृत्ति को अखण्ड सन्मुख करके वीतराग का मूल मारग सुनना चाहिए।'
(२) नोय पूजादिनी जो कामना रे, मूल मारग सॉभलो जिन नो रे॥ __ जो जीव ऐसा मान के शास्त्र सुनते है कि मेरी पूजा प्रतिष्ठा हो पुण्य का बन्ध हो, सासारिक वासना पूर्ति की इच्छा करता हो, वह वीतरागी मूल मारग सुनने लायक नहीं है। वक्ता कहे, आइये मेठजी तो वह अपनी प्रशसा सुनेगा किन्तु वीतरागता की बात नही सुन सकेगा। वीतरागता की रुचि वाले जूते रखने की जगह मे बैठकर भी वीतरागी वाणी सुनने से पीछे नही हटते। जो मान कीर्ति के चक्कर मे है, वह भगवान की वाणी सुनने लायक नहीं है।
(३) नो य व्हावं अन्तर भव दु.ख मूल मारग साँभलो, जिन नो रे॥ ___ अन्तर मे कोई भी भव का दुख कडुवा लगे अर्थात अच्छा ना लगे। जिसे मनुष्यभव, देवभव अच्छा लगता हो, वह वीतरागी वाणी सुनने के लायक नही है।
चारो गति के विषय मे मोक्षपाहुड गाथा १६ मे क्या कहा
- उत्तर-चारो गति का भाव दुर्गति है 'पर दव्वादो दुग्गइ, सदव्वादो हु सुगई' अर्थात् स्व द्रव्य मे परिणति सो सुगति है, पर द्रव्य मे परिणति सो दुर्गति है । जिस भाव से तीर्थकर गोत्र का बन्ध होता है वह भाव भी दुर्गति है और जिस भाव मे शुद्धोपयोग रूप परिणमन हो वह सुगति है । इसलिए जिसे ससार का दुख अच्छा ना लगता हो, वह ही भगवान की वाणी सुनने लायक है।