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( २०७ ) पुदगल द्रव्य की स्वतन्त्र क्रियाएँ है। नोकर्म-द्रव्यकर्म सब का पुदगल ही कर्ता है इनकी क्रियाओ से ना पुण्य होता है ना पाप होता है और ना धर्म होता है। (२) हिंसा-झूठ-चोरो-कुशील-परिग्रह यह अशुभभाव पापभाव है और अहिंसा-सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य और परिग्रह का शुभ भाव पुण्य भाव है धर्म नहीं है। (३) अज्ञानी का शुभभाव अनन्त ससार का कारण है क्योकि वह उसे उपादेय, धर्म का कारण मानता है। ज्ञानी शुभभाव को हलाहल जहर हेय मानता है उसे व्यवहार कहा है । (४) मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम वीतरागभाव वह धर्म है उसका फल अतीन्द्रिय सुख मोक्ष है । यह शुद्धभाव एकमात्र अपने आश्रय से ही प्रगट होता है, पर, विकार, शुद्ध पर्याय के आश्रय से प्रगट नही होता है । (५) जीव केवल भाव कर सकता है पर की क्रिया तो मिथ्यादृष्टि भी नही कर सकता है। शुभाशुभ भावो तक अज्ञानी की दौड है । ज्ञानी की दौड शुद्धभाव तक है । ऐसा जानकर अपने स्वभाव का आश्रय लेना ही कल्याणकारी है।
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निर्वाण और परिभामण
जो जीव सम्यग्दर्शन से युक्त है, उस जीव को निश्चित ही निर्वाण का संगम होता है और मिथ्यादृष्टि जीव को सदैव संसार में परिभ्रमण होता है।
[सारसमुच्चय-४१]