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________________ ( २०१ ) प्रश्न ३६-(१) मोहनीय कर्म के उदय से राग उत्पन्न होता है (२) जीव के राग करने से मोहनीय कर्म उत्पन्न होता है (३) ज्ञाना वरणीय ज्ञान को रोकता है (४) दर्शनमोहनीय सम्यक्त्व नहीं होने देता (५) जीवो का मरना-जीना, सुख-दुःख पुद्गलो का उपकार है (६) जीवो ने कर्म किये-जीयो ने कर्मों को भोगा (७) जीव बोलता है (८) आत्मा ने शरीर को चलाया या शरीर ने आत्मा को चलाया (६) जीव ने दूसरे जीवो की रक्षा की या मारा (१०) सैनी जीव है, अतैनी जीव है, इन्द्रियो वाला जीव है आदि कथन शास्त्रो मे आते है इनसे क्या समझना चाहिए? उत्तर-यह सब निमित्त की अपेक्षा कथन किया है यह असत्यार्थ कथन है ऐसा जानकर असत्यार्थ कथन का श्रद्धान छोडना । इस प्रकार व्यवहार के कथन का ऐसा का ऐसा श्रद्धान करने से मिथ्यात्व की पुष्टि होती है, क्योकि शास्त्रो मे इनका तात्पर्य मात्र धर्म द्रव्य के समान उपस्थिति मात्र है, ऐसा बताना है । (२) जो जीव एक द्रव्य का दूसरे द्रव्यो के साथ कर्ता-कर्म मानता है वह द्विक्रियावादी-जिनमत से बाहर है। इसलिए पात्र जीवो को दो द्रव्यो की एकता बुद्धि छोडकर, अपने स्वभाव का आश्रय लेकर अपना कल्याण करना चाहिए। प्रश्न ४०-गुरुगम बिना अपनी खोटी मान्यता से जिनवाणी को सुना और क्या सीखा ? विकार पुद्गल का कार्य है हमारा कल्याण जब होना होगा तब होगा । अशुभभाव आना है तो आवेगा-हम क्या करें, वह जीव कैसा है ? उत्तर-(१) वीतराग का मार्ग स्वछन्द होने के लिए नहीं है । जो जीव वीतराग की बात सुनकर उससे उल्टा अथ निकालता है वह निगोद का पात्र है। जबकि वर्तमान मे बडे भाग्य से शुभाशुभ भाव रहित वीतरागता प्रगट करने का समम आया है उसके बदले कहे अशुभ भाव का भी तो समय आया है-ऐसी मान्यता वाला जिनवाणी
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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