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( २०० ) प्रश्न ३६-दो द्रव्यो की पर्यायों में जो व्यवहार कहा जाता है वह किस प्रकार है?
उत्तर-जीव पुदगल के गति, स्थिति, अवगाहन, परिणमन आदि कार्यो मे जो धर्म-अधर्म-आकाश और कालद्रव्य का गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व और परिणमनहेतुत्व का जो कथन आता है-~वह सब व्यवहार कथन ही है। इस व्यवहार कथन का अर्थ मात्र इतना ही है कि जीव-पुद्गल अपने गति, स्थिति आदि कार्यों को तो स्वय अपनी-अपनी स्वतन्त्र उस समय पर्याय की क्षणिक योग्यता से ही करते है तब धर्म-अधर्म-आकाश और काल की उपस्थिति मात्र है । जैसे- हमारे चलने मे सडक उपस्थिति मात्र है; उसी प्रकार जीद और पुदगल के गति स्थिति आदि मे धर्म-अधर्म-द्रव्यों की उपस्थिति मात्र है।
प्रश्न ३७---कुछ मनीषी कहलाने वाले पुद्गल और जीव की गति-स्थिति आदि कार्यों का फर्ता धर्म-अधर्म-आदि द्रव्यो को ही कहते हैं और ऐसा ही उपदेश करते हैं क्या वे गलत हैं ?
उत्तर-बिल्कुल गलत हैं, वे मनीषी दो द्रव्यो की कर्ता-कर्म रूप एकत्व-बुद्धि की पुष्टि करके मिथ्यात्व का पोषण कर निगोद के पात्र बनते है और उनकी बात मानने वाले भी गृहीत मिथ्यात्व को पुष्टिकर निगोद मे चले जाते है क्योकि सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की विराधना का फल निगोद है।
प्रश्न ३८-कुछ मनीषी धर्म-अधर्म-आकाश और काल द्रव्यो को मानते ही नहीं है क्या यह उनकी बात ठीक है ?
उत्तर-बिल्कुल गलत है। जो मनीषी धर्मादि द्रव्यो को नहीं मानते है-वे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का लोप करने वाले एकाती हैं और निगोद के पात्र है । क्योकि भगवान की वाणी मे आया है कि 'जहाँ उपादान होता है, वहां निमित्त होता ही है ऐसा वस्तु स्वभाव
है।