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कालद्रव्य हैं इतना पर द्रव्य का अस्तित्व है। (२) विकारीपर्यायो का अस्तित्व शुभाशुभ विकारी भाव का अस्तित्व है (३) अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्यायों का अस्तित्व है। (४) त्रिकाली ज्ञायफ स्वभाव का अस्तित्व हैं। अब जिसको अपना भला करना हो वह तीन प्रकार के अस्तित्व से अपना ध्यान हटाकर चौथे प्रकार का अस्तित्व स्वय है उस पर दृष्टि देवे, तो ही धर्म की शुरूआत वृद्धि और पूर्णता होकर मुक्तिरूपी लक्ष्मी का नाथ बनता है। ११वी गाथा जैन दर्शन का प्राण है। यदि कुन्दकुन्द भगवान की आज्ञा माने तो तुरन्त धर्म की प्राप्ति हो और अनन्तकाल का ससार-परिभ्रमण अल्पकाल मे नाश हो जावे अत. अपने त्रिकाली स्वभाव के माश्रय से हो धर्म को प्राप्ति वृद्धि और पूर्णता होती है।
प्रश्न ३५-पंच परसेप्टियो के आश्रय से, दया दान-पूजा-अणुव्रत महाव्रतादि के आश्रय से धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती और क्या हम जो व्रतादि करते हैं, वह व्यर्थ ही हैं ?
उत्तर-अनादिकाल से अज्ञानी जीव अनन्तबार दिगम्बर जैन द्रयलिंगी मुनि बना और शक्ललेश्या का शुभभाव अनन्तवार किया परन्तु ससार का ही पात्र रहा। प्रवचनसार मे द्रव्यलिंगी मुनि को ससार तत्त्व कहा है। इसलिए तीनकाल -तीनलोक मे कभी भी भगवान के आश्रय से, अणुव्रत-महाव्रतादि के आश्रय से धर्म की प्राप्ति नही होती है । एकमात्र अपने त्रिकाल के आश्रय से धर्म की शुरूआत, वृद्धि और पूर्णता होती है-ऐसा चारो अनुयोगो मे सब भगवानो ने कहा है। यही वात भगवान कुन्दकुन्द आचार्य ने ११वी गाथा मे वतायी है। इसलिए हे आत्मा । तू अपने आत्मा को दुख समुद्र मे नही डुवाना चाहता, तो एक बार अपने भगवान का आश्रय ले, तो देख । जीवन मे अपूर्व आनन्द की प्राप्ति होगी, फिर तुझे किसी से पूछना नही पडेगा।