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पडता है, इसलिये व्यवहारनय कहा है । (४) श्रुत ज्ञान का अंश है, इसलिये नय कहा है |
प्रश्न २८ - चार प्रकार के अध्यात्म के व्यवहार को भी झूठा क्यो कहा है
?
उत्तर - भेद दृष्टि मे निर्विकल्प दशा नही होती और सरागी को विकल्प बना रहता है इसलिए जहाँ तक रागादिक दूर न हो वहाँ तक भेद को गौण करके, अभेद रूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है । इस अपेक्षा अध्यात्म के व्यवहार को झूठा कहा है । [ समयसार गा० ७ के भावार्थ मे से ]
प्रश्न २६ - क्या व्यवहार सर्वथा असत्यार्थ है ?
उत्तर - व्यवहार को असत्यार्थं कहा था वहाँ ऐसा नही समझना चाहिए कि वह सर्वथा असत्यार्थ है किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना चाहिए क्योकि जब एक द्रव्य को भिन्न, स्वपर्यायो से अभेदरूप, उसके असाधारण गुण मात्र को प्रधान करके कहा जाये तब परस्पर द्रव्यो का निमित्त नैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होने वाली पर्याये वे सब गौण हो जाते हैं। अभेद द्रव्य की दृष्टि मे वे प्रतिभासित नही होते, इसलिए वे सब उस द्रव्य मे नही है ऐसा कथचित निषेध किया जाता है । यदि उन भावो को उस द्रव्य में कहा जावे तो व्यवहारनय से कहा जा सकता है | [ समयसार गा० ११ मे से ] प्रश्न ३० - किस दृष्टि से व्यवहारनय सत्यार्थ है ? उत्तर - यदि निमित्तनैमित्तिक भाव की दृष्टि से देखा जावे तो व्यवहारनय कथचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है यदि सर्वथा अन्यार्थ ही कहा जावे तो सर्व व्यवहार का लोप हो जावेगा और व्यवहार का लोप होने से परमार्थ का भी लोप हो जावेगा । इसलिए जिनदेव का स्याद्वादरूप उपदेश समभने से ही सम्यकज्ञान है । सर्वथा एकान्त मिथ्यात्व है । [ समयसार गा० ५८ से ६० के भावार्थ मेसे ॥]