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निश्चयनय स्वद्रव्य के भावो को और परद्रव्य के भावो को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण नहीं करता। सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका ग्रहण करना चाहिए। अत निश्चय नय का निश्चयरूप और व्यवहारनय का व्यवहार रूप श्रद्धान करने योग्य हैं।
(३) व्यवहारनय-कारण-कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है। सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिए। निश्चयनय-कारण-कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नहीं करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका ग्रहण करना चाहिए। अत निश्चयनय का निश्चयरूप और व्यवहारनय का व्यवहाररूप श्रद्धान करने योग्य है।
प्रश्न २०-एक द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है और उपचार से उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। इस बात को दृष्टान्त देकर समझाइये ? -
उत्तर-जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घडा निरूपित किया जाय सो निश्चय और घृत सयोग के कारण उपचार से उसी को घृत का घडा कहा जाय, सो व्यवहार है । इसी प्रकार १८ दृष्टान्त देकर समझाया जाता है।
(१) शुभभावो को आस्रव-बध कहना यह निश्चय है भूमिकानुसार और शुभभावो को मोक्षमार्ग कहना यह व्यवहार है। (२) जीव को जीव कहना निश्चय है और जीव को इन्द्रिय वाला कहना व्यवहार है। (३) देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा को बन्ध मार्ग कहना निश्चय है
और देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहना यह व्यवहार है। (४) अणुव्रतादि के भाव को बन्धरूप कहना निश्चय है और ज्ञानी के अणुव्रतादि के भाव को श्रावकपना कहना यह व्यवहार है । (५) महा