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________________ ( १९२ ) उत्तरव्यवहारोऽभवत्थो भूयस्थो देसिदो दु सुद्धणो। भूयत्मस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥११॥ अर्थ-व्यवहानय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा ऋषीश्वरो ने बताया है । जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह जीव वास्तव मे सम्यग्दृष्टि है। प्रश्न १७-ऋषिश्वरो ने क्या बताया है ? उत्तर-व्यवहारनय सब ही झूठा है इसलिए वह अविद्यमान' असत्य, अभूत अर्थ को प्रगट करता है शुद्धनय एक ही भूतार्थ होने से विद्यमान, सत्यभूत अर्थ को प्रगट करता है। प्रश्न १८-क्या व्यवहारनय है ही नहीं ? उत्तर-व्यवहारनय है, उसका विपय भी है, परन्तु व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है। प्रश्न १६-व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य क्यो नही है और निश्चय अनुसरण करने योग्य क्यो है। इसको (१) स्वद्रव्य-पर-द्रव्य मे; (२) स्वद्रव्य के भावो-पर द्रव्य के भावो मे (३) कारण-कार्य मे लगाकर समझाओ? उत्तर-(१) व्यवहारनय=स्वद्रव्य और परद्रव्य को, किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। निश्चयनय = स्वद्रव्य और परद्रव्य को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नहीं करता। सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका ग्रहण करना चाहिए। अत निश्चयनय का निश्चयरूप और व्यहारनय का व्यहाररूप श्रद्धान करने योग्य है। (२) व्यवहारनय =स्वद्रव्यो के भावो को और परद्रव्य के भावो को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है। सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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