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है इसलिए उसका श्रद्धान करना।
प्रश्न १३-आप कहते कि हो, व्यवहारनय का त्याग करना और निश्चनय फा श्रद्धान करना परन्तु जिनमार्ग में दोनों नयों को ग्रहण करना कहा है, सो कैसे?
उत्तर-जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है'-ऐसा जानना । तथा कही व्यवहारनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे 'ऐसे है नही, निमित्तादि की उपेक्षा उपचार किया है'-ऐसा जानना इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है।
प्रश्न १४-कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं 'ऐसे भी है, और ऐसे भी हैं इसलिए दोनों नयो का ग्रहण करना चाहिए, क्या वह गलत है ?
उत्तर-बिल्कुल गलत है, उन्हे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है। दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर 'ऐसे भी है, ऐसे भी है'--इस प्रकार भ्रम रूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नहीं कहा है।
प्रश्न १५-व्यवहार असत्यार्थ है तो जिन मार्ग मे उनका उपदेश क्यो दिया ? एकमात्र निश्चयनय का ही निरूपण करना चाहिए था?
उत्तर-ऐसा ही त समयसार मे किया है उत्तर दिया है कि जैसे किसी अनार्य म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने म कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है इसलिए व्यवहार का उपदेश है । इस प्रकार निश्चय को अगीकार कराने के लिए व्यवहार के द्वारा उपदेश देते है परन्तु व्यवहारनय है वह अंगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न १६-समयसार गाथा ११ में भूतार्थ-अभूतार्थ किसे बताया