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________________ ( १६० ) उत्तर - वास्तव मे इससे तो अज्ञानी की भ्रमणा का अभाव होता है, क्योंकि जहाँ शास्त्रो मे (१) विकारीभाव को निश्चय कहा है वहाँ यह जानना कि आचार्य भगवान दोप का ज्ञान कराना चाहते हैं और जो जीव ऐसा मानता है कि रागादिक कर्म ही कराता है उनकी ऐसी बुद्धि होने के लिए विकारी भाव को निश्चय कहा है । ( २ ) शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट करने योग्य है शुभ भाव नही । इस अपेक्षा निश्चय कहा है । ( ३ ) त्रिकाली अखण्ड ही एकमात्र आश्रय करने योग्य है तू उसका आश्रय ले, तो तेरा भला होगा- इसलिए निश्चय कहा है । प्रश्न ६ - रागादि को परभाव क्यो कहा है ? उत्तर - रागादि पर के आश्रय से होता है इसलिए रागादि को परभाव कहा है । प्रश्न १० - निश्चय व्यवहार के विषय मे क्या ध्यान रखना चाहिए ? उत्तर- (१) निश्चयनय से जो निरूपण किया हो उसे सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहार से जो निरुपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना, क्योकि जिनेन्द्र भगवान ने सम्पूर्ण व्यवहार का त्याग कराया है । प्रश्न ११ - व्यवहार के श्रद्धान से मिथ्यात्व क्यो है ? उत्तर --- व्यवहारनय = स्वद्रव्य-परद्रव्य को, स्वद्रव्य के भावो और परद्रव्य के भावो को तथा कारण-कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना । प्रश्न १२ - निश्चय के श्रद्धान से सम्यक्त्व क्यों है ? उत्तर - निश्चयनय - स्वद्रव्य - परद्रव्य को, स्वद्रव्य के भावो और परद्रव्य के भावो को यथा कारण-कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नही करता, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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