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जीव उत्पाद-व्यय- वरूप सत् है । (२) जीव चैतन्यस्वरूप है । (३) जीव अपने अनन्त धर्मों मे रहता है । ( ४ ) जीव गुण पर्यायवन्त है ( ५ ) जीव स्व पर प्रकाशक है । (६) जीव अन्य द्रव्यो से भिन्न असाधारण चेतना गुण रूप है । और (७) जीव सदा अपने स्वरूप मे टोत्कीर्ण रहता है ऐसा विशेषो वाला जो जीव पदार्थ है उसे ही समय कहा है ।
प्रश्न १२ - समयसार की दूसरी गाया मे स्वसमय किसे कहा है ?
उत्तर - जब जीव का स्वरूप पहिचानकर स्व-पर का भेदज्ञान करे । तब जीव पर से भिन्न अपने दर्शन - ज्ञान स्वभाव मे निश्चल परिणति रूप होता हुआ, अपने मे स्थित होता है उसे स्वसमय कहा है |
प्रश्न १३ - प्रवचनसार गाथा ११ मे क्या बताया है ?
उत्तर - कषाय बिना शुद्धोपयोग धर्म है। जो जीव राग बिना पूर्ण शुद्धोपयोगरूप परिणमे, वह जीव मोक्ष सुख को प्राप्त करता है और धर्म परिणति वाला वह ही जीव जो शुभराग सहित हो तो स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है मोक्ष को प्राप्त नही करता है । इसलिए शुभराग है है और शुद्धोपयोग ही प्रगट करने योग्य उपादेय है ।
आवश्यक कर्त्तव्य
यदि उत्तम मार्ग मे ही गमन करने की अभिलाषा है तो बुद्धिमान पुरुषो का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वे मिथ्यादृष्टियो, विसहसो अर्थात् विरुद्ध धर्मानुयायियों सन्मार्ग से भ्रष्ट हुए मायाचारियो व्यसनानुरागियो तथा दुष्टजनो की संगति को छोड़कर उत्तम पुरुषो का सत्सग करें । - पद्मनन्दि पञ्चविशति छन्द- ३४