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( १८६ ) धर्म की प्राप्ति हुई हो उसी से सीखना चाहिए। जब स्वय अनुभव हो जाता है तब उपचार से इनसे हुआ ऐसा बोलने मे आता है। द्रव्यलिंगी साधु कभी भी धर्म मे निमित्त नही हो सकता है। प्रवचन-सार गा० २७१ मे द्रव्यलिंगी मुनि को ससारतत्व कहा है और वह धर्म प्राप्ति मे निमित्त बने, ऐसा कभी नही होता है। धर्म की प्राप्ति मे निमित्त ज्ञानी गुरु ही होता है, अज्ञानी नही हो सकता।
[नियमसार गाथा ५३] प्रश्न :-जब धर्म की प्राप्ति आत्मा के आश्रय से ही होती है तब धर्मो गुरु निमित्त होता है ऐसा क्यो कहा?
उत्तर-वास्तव मे कार्य उस समय पर्याय की योग्यता से ही होता है परन्तु उस समय वहाँ कौन निमित्त है ऐसा ज्ञान कराया है। क्योकि जहाँ उपादान होता है वहाँ निमित्त अवश्य ही होता है ऐसा वस्तु स्वभाव है । निमित्त जितने भी है वह सब धर्मद्रव्य के समान उदासीन ही है।
प्रश्न १०-जब उपादान मे कार्य होता है तब निमित्त होता ही है ऐसा कहाँ लिखा है ?
उत्तर-(१) प्रवचनसार गा० ६५ मे बताया है कि 'जो उचित बहिरग साधनो की सन्निधि के सदभाव मे अनेक अवस्थाएँ करता है।' यहाँ तात्पर्य इतना ही है जहाँ कार्य हो वहाँ उचित निमित्त होता ही है। न हो ऐसा नही होता है। (२) "उपादान निज गुण जहाँ, निमित्त पर होय।
भेदज्ञान प्रमाण विधि, बिरला बूझै कोय ॥" (३) जहाँ सच्चाकारण रूप उद्यम करे, वहाँ अन्य निमित्त कारण होते ही है-ऐसा वस्तु स्वभाव है। - प्रश्न ११-समयसार गाथा दो में जीव की सिद्धि कितने बोलो से की है ?
उत्तर-जीव कैसा है उसकी सिद्धि सात बोलो से की है। (१)