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गाथा मे पहले कहा था कि अभेद अनन्त गुणो का तादाम्य सिद्ध सम्बन्ध है । उसकी और दृष्टि करे तो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है । दया दान-पूजा यात्रा - महाव्रत- अणुव्रतादि का सयोगसिद्ध सम्बन्ध है । इनसे अपनापना माने तो पर्याय से मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र की दृढता होती है । ( ३ ) शुभभाव जो ससार का कारण है । उसको अज्ञानी दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी मोक्ष का कारण मानता है । कुन्दकुन्द आचार्य ने गा० ७२-७४ मे शुभभावो को अपवित्र, घिनावना, मल-मैलरूप, जड स्वभावी, अनित्य, अशरण, अध्रुव, वर्तमान मे दुखदायी और भविष्य मे भी दुखदायी कहा है। ऐसा जाने माने और मैं " एक - शुद्ध- ममत्वहीन - ज्ञानदर्शनपूर्ण हू" ऐसे स्वभाव का आश्रय ले, तो धर्म की प्राप्ति होती है। यह धर्म की प्राप्ति का उपाय गाथा ७३ मे बताया है ।
प्रश्न ५- श्री प्रवचनसार गा० १९२ में धर्म की प्राप्ति का क्या उपाय बताया है ?
उत्तर
ए रीत दर्शन ज्ञान है, इन्द्रिय-अतीत महार्थ है । मानूँ हूं-आलम्बन रहित शुद्ध जीव निश्चल ध्रुव है । १६२ |
(१) (२) ज्ञान-दर्शन से तन्मयी = पर पदार्थों से अतन्मयी हू (३) अतीन्द्रिय महापदार्थ = इन्द्रियात्मक सब पर पदार्थ हैं । अचल =चलायमान सवज्ञ ेय पर्यायो से भिन्न हू, क्योकि वह चलरूप है । (५) निरालम्ब - ज्ञ ेय रूप सब पर द्रव्यो से भिन्न हू ।
प्रश्न ६ - श्री प्रवचनसार गाथा १६२ का रहस्य क्या है ?
उत्तर - आचार्य भगवान कहते है कि मैं आत्मा को " (१) दर्शनस्वरूप, (२) ज्ञानस्वरूप, (३) अतीन्द्रिय महापदार्थ, (४) अचल (५) निरालम्ब मानता हू - जानता हू । इसलिये आत्मा एक है। एक है तो शुद्ध है। शुद्ध है तो ध्रुव है । तो एकमात्र वह ही प्राप्त करने योग्य है । लक्ष्मी, शरीर, सयोगो मे सुख-दुख की कल्पना, शत्रु- -मित्र