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ह यह मेरे स्वसम्वेदन से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता है। मै एक हू, शुद्ध हु, दर्शन-ज्ञानमयी हैं । सदा अरूपी हूँ; यह स्वसम्वेदन अनुभवी ज्ञानी ही जानते हैं । अज्ञानियो को इनका पता नही है। जो जीव ऐसा अनुभव करता है उसी जीव ने प्रसन्नचित से भगवान आत्मा की बात सुनी है। वह नियम से मोक्ष को प्राप्त होता है। इसकी महिमा ज्ञानी ही जानते है, अज्ञानी नही जानते। यह ३८वी गाथा का तात्पर्य है।
प्रश्न ३-क्या करें तो अनादिकाल का पागलपना समाप्त हो ?
उत्तर-(१) मेरी आत्मा को छोडकर बाकी अनन्त आत्माएँ हैं, अनन्तानन्त पदगल हैं, धर्म-अधर्म आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं। इनसे तो मेरा किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न था, न है और न होगा। (२) पर्याय मे जो विकारी शुभाशुभ भाव है वह एक समय के है। शुभाशुभ भावो मे एकत्व बुद्धि ससार है वह एक समय का ही है । मैं स्वय अनादिअनन्त हूँ ऐसा जाने तो उसी समय पागलपन मिट जाता है और तुरन्त धर्म की प्राप्ति हो जाती है फिर जैसे-जैसे अपने स्वभाव मे एकाग्रता करता है। क्रमश परिपूर्णता की प्राप्ति कर स्वय ज्ञानघनरूप अमृत का पिण्ड बन जाता है।
प्रश्न ४-श्री समयसार की ७३वी गाथा मे धर्म की प्राप्ति का क्या उपाय बताया है ?
मै एक शुद्ध ममत्वहीन रु ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ। इसमे रहूँ स्थित लोन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूँ ॥७३॥
भावार्थ-(१) एक मात्र "मैं एक हूँ शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ, ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ, ऐसा अभेद स्वभाव की ओर दृष्टि करे तो तुरन्त ससार का अभाव और धर्म की प्राप्ति होती है। यह ही उपाय क्रोधादि के क्षय का है, अन्य उपाय नही है। (२) कर्ताकर्म को ६९-७०