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बारहवाँ प्रकरण सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति का उपाय
प्रश्न १-श्री समयसार गा० ३८ मे सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति का क्या उपाय बताया है ?
उत्तरमैं एक शुद्ध सदा अरुपी, ज्ञान दग हू यथार्थ से । कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणु मात्र नहीं अरे ।।३।।
अर्थ-दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप परिणत आत्मा यह जानता है कि मैं निश्चय से एक हू, शुद्ध हू, दर्शन-ज्ञानमय हू, सदा अरुषी हू; किचित् मात्र भी अर्थात् परमाणु मात्र भी मेरा नही यह निश्चय है।
प्रश्न २ - समयसार गाथा ३८ का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर-(१) निगोद से लगाकर द्रव्यालगी मुनि तक जनादिकाल से एक-एक समय करके अपनी भ्रमात्मक बुद्धि के कारण क्रोध मान, माया, लोभ, पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन, देह, चार गतियो में, आठ द्रव्यकर्मों मे नोकर्म मे (पर वस्तुओ मे), धर्म-अधर्म-आकाश एकएक लोक प्रमाण असख्यात काल आदि द्रव्यो मे तथा अपनी आत्मा को छोडकर अन्य आत्माओ मे अपनेपने की खोटी बुद्धि से पागल हो रहे है । यह मै ही हू मैं इनका कर्ता हू, ये मेरे काम है, मैं हू सो ये ही हैं, ये हैं सो मैं हू आदि भूत-भविष्य-वर्तमान विकलो मे पागल होने से अत्यन्त अप्रतिवुद्ध था। (२) तव धर्मी (ज्ञानी) ने कहा, हे भव्य । नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म से तेरा कुछ भी सम्बन्ध नही है तू क्यो व्यर्थ मे पागल बना हुआ है। तू तो एक-शुद्ध-दर्शन-ज्ञानमयी-सदा अरुपी भगवान आत्मा है । ऐसा सुनकर अपने स्वभाव की ओर दृष्टि दी तो इसे ऐसा अनुभव हुआ "मैं चैतन्य मात्र ज्योतिस्वरूप आत्मा