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अमृतचन्द्राचार्य का यह सिद्धान्त कि 'ज्ञानी तो अपनी और परकी परिणति को जानता हुआ प्रवर्तता है' यह याद आते ही शान्ति आ जावेगी क्योकि 'सब पदार्थ अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मो के चक्र को (समूह को) चुम्बन करते हैं-स्पर्श करते हैं तथापि वह द्रव्य परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते' तात्पर्य यह है कि ससार मे जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं उनमे अनन्त गुण और पर्याय हैं । पर्याय प्रति समय बदलती रहती है कोई समय ऐसा नही, जिस समय किसी भी द्रव्य की कोई पर्याय न बदलती हो । जब कायम रहते हुए, पर्याय का निरन्तर बदलना स्वाभाविक है तो मैं किसी मे कुछ कर सकता हूँ या मेरा कोई करे; इस प्रश्न के लिए अवकाश ही । नही रहता । निगोद से लगाकर सिद्ध भगवान तक सबने ज्ञान ही किया है, ज्ञान ही करेंगे लेकिन मात्र मिथ्यादष्टि की मान्यता मे फेर है। मात्र ज्ञान के अलावा जीव पर मे कुछ हेर फेर नही कर सकता है । ऐसा यह महासिद्धान्त 'ज्ञानी तो अपनी और परकी परिणति को जानता हुआ प्रवर्तता है। उसकी यथार्थतया समझकर अन्तर मे परिणमन करे तो अपूर्व शान्ति मिलेगी।
प्रश्न २१-'ज्ञानी तो अपनी और पर की परिणति को जानता हुआ प्रवर्तता है' इस वाक्य मे से कितने बोल निकलते हैं ? - उत्तर–पाँच बोल निकलते हैं। (१) ज्ञानी, (२) अपनी परिणति एकदेश, (३) अपनी परिणति पूर्ण; (४) पर, (५) पर परिणति।
प्रश्न २२-ज्ञानी आदि पांच बोलो पर नौ पदार्थ उतार कर बताओ?
उत्तर-(१) ज्ञानी जीवतत्त्व, (२) अपनी परिणति एकदेश= सवर-निर्जरातत्व; (३) अपनी परिणति पूर्ण मोक्षतत्त्व, (४) पर= अजीवतत्व; (५) पर परिणति आस्रव-बन्ध, पुण्य-पाप । । प्रश्न २३-ज्ञानि आदि पांच बोलो को पॉच भाव पर उतारकर समझाओ?