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थी उस नाले से यह पानी मगवाया था। बाद मे उसको स्वच्छ व सुगधित वनाया है। पानी की भूत अवस्था, वर्तमान रूप सुगन्धित अवस्था तथा भविष्य की पेशाब रूप अवस्था का लक्ष छोडकर मात्र पुद्गल की नित्यता का विचार करे तो जीव मे वीतरागता आये 'बिना नही रह सकती।
अत मारीच, शेर, नन्दराजा, महावीर अवस्था से देखने पर अज्ञानी को राग-द्वेष उत्पन्न होता है और वही आत्मा है ऐसी नित्यता को देखे, तो वीतरागता की प्राप्ति तुरन्त हो जाती है।
अणुमात्र भी रागादि का सद्भाव है जिस जीव को। वो सर्व आगम घर भले ही, जानता नहिं आत्मा को ॥२०१।। नहि जानता जहं आत्मा को, अनआतम भी नहीं जानता। वो क्यो हि होय सुदृष्टि जो जीव अजीव को नहिं जानता॥२०२॥
तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि मात्र पर्याय को ही देखता है और दुखी होता है । यदि दु ख का अभाव करना हो तो स्वभाव को देखो तो शान्ति आवेगी "पज्जय मूढाहि पर समया" ऐसा प्रवचनसार में कहा है । स्वभावदृष्टि सो सम्यकदृष्टि । इसलिए अपने स्वभाव का आश्रय लेना प्रत्येक पात्र जीव का परम कर्तव्य है ।
श्री समयसार के ५०वें कलश का रहस्य
प्रश्न १६-सुखी होने का, ज्ञानी बनने का और परमात्मा बनने का उपाय समयसार ५०वें कलश मे, क्या उपाय बताया है ? .
उत्तर-यह ५०वें कलश का रहस्य समझ जावे, तो जीव और पुद्गल मे कर्ता-कर्म भाव है ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव होते ही सुखी पने का और ज्ञानीपने का अनुभव होता है और जैसे-जैसे अपने मे लीन होता जाता है वैसे-वैसे परमात्मा बनता जाता है।
प्रश्न २० -५०वें कलश के बोलों से क्या घटित होता है ?
उत्तर-यह हमारा लडका है । मैं इसका पालन-पोषण करता हू लेकिन यह जरा भा मेरी आज्ञा का पालन नही करता तो देखो श्री