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अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर, क्रम से मोक्षरूपी लक्ष्मी का नाथ वन जाता है ।
प्रश्न १२ – प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुण- पर्यायों मे ही भूत-भविष्यवर्तमान मे वर्त रहा, वर्तेगा और वर्तता रहा है ऐसा सिद्धान्त जानने से मानने से धर्म की प्राप्ति नियम से होती है यह सिद्धान्त शास्त्रो मे कहाँ-कहाँ आया है ?
उत्तर- (१) मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५२ मे लिखा है कि "अनादिनिघन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा लिये परिणमे है, कोई किसी को परिणमाया परिणमता नाही और परिणमाने का भाव निगोद का कारण है ।" (२) कार्तिकेय अनुप्रेक्षा गा० २१६ मे लिखा है कि " समस्त द्रव्य अपने-अपने परिणामरूप द्रव्य क्षेत्र - काल सामग्री को प्राप्त करके स्वय ही भावरूप परिणमित होते है, उन्हे कोई रोक नही सकता है ।" (३) 'तेहि पुणो पज्जाया' श्री प्रवचनसार गा. ९३ मे द्रव्य और गुणों से पर्याये होती है । (४) लोक मे सर्वत्र जो जितने पदार्थ है वे सब निञ्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को प्राप्त होते हैं - वे सव पदार्थ अपने द्रव्य मे अन्नर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते है स्पर्श करते है । तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नही करते । अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाह रूप से तिष्ट रहे है तथापि सदा काल अपने स्वरूप से च्युत नही होन हैं पर रूप परिणमन न करने से अपनी अनन्त व्यक्ति नष्ट नही होत । इसलिए वे टकोत्कीर्ण की भाँति स्थित रहते है और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनो की हेतुता से वे विश्व का सदा उपकार करते हैं, अर्थात् वे टिकाये रखते हैं। [नमयसार गा० ३ की टीका से ] (५) वस्तु की मालिक वस्तु है, जो मालिक है वही कर्ता है । फिर मालिक के मालिक वनकर क्यो नीति न्याय गमाते हो । ( ६ ) समयसार गा० १०३ तथा ३७२ महासिद्धान्त की गाथा हैं, इसमें भी वही लिखा है तथा समयसार मे २०० तथा २०१ का कलश देखो । (७) जड चेतन
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