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________________ ( १७० ) इसलिए ज्ञानी तो सबका ज्ञाता ही रहता है क्योकि यह 'सत् द्रव्य 'लक्षणम्' 'उत्पाद व्यय धीव्ययुक्त सत्' के रहस्य को जानता है और भगवान अमृतचन्द्राचार्य रचित २११ वें कलश के चार वोलो को जानता है कि (१) वास्तव मे परिणाम निश्चय से कर्म है । (२) परिनाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही है, अन्य का नही । (३) कर्म कर्त्ता के बिना नही होता ( ४ ) वस्तु की एकरूप स्थिति नही रहती है । इसलिए ज्ञानी को (१) ऐसा क्यो ( २ ) इससे यह (३) यह हो, यह ना हो, ऐसे प्रश्न उपस्थित नही होते है । वह तो सिद्ध भगवान के समान ज्ञाता दृष्टा रहता है, मात्र जानने मे प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है, जानने मे विरुद्धता नही । ऐसा ज्ञान स्वभावी का रहस्य बताने वाले जिन जिनवर और जिनवर वृपभो को बारम्बार नमस्कार । मोक्ष और बंध का कारण साधक जीव के जब तक रत्नत्रय भाव की पूर्णता नही होती तब तक उसे जो कर्मबध होता है उसमे रत्नत्रय का दोष नहीं है । रत्नत्रय तो मोक्ष का ही साधक है, वह वध का कारण नहीं होता; परन्तु उस समय रत्नत्रय भाव का विरोधी जो रागांश होता है वही बध का कारण है । जीव को जितने अश में सम्यग्दर्शन है उतने अश तक बधन नही होता; किन्तु उसके साथ जितने अश मे राग है उतने ही अंश तक उस रागाश से बधन होता है । ( पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा २१२, २१५ )
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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