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________________ ( १६९ ) प्रश्न ११-'इससे यह क्या ऐसा प्रश्न भी ज्ञान स्वभावी ज्ञान को उठता नहीं? उत्तर-जैसे-हजार रुपया खो गया अज्ञानी ऐसा मानता है कि मेरा रुपया गया, इसलिए मुझे दुख होता है । वास्तव मे रुपया खो जाने के कारण दुख नही परन्तु "मेरा खो गया" यह मान्यता हो दुख का कारण है । ज्ञानी तो विचारता है कि रुपया गया, वह तो पुदगल की क्रियावती शक्ति के कारण गया। उसके जाने के कारण मुझे दुख है ही नहीं। मैं तो स्व पर प्रकाशक ज्ञान स्वभावी आत्मा है । इसलिए स्व के ज्ञान के समय रुपया खो जाने रूप पुदगल की अवस्था हुई उसका तो मै मात्र परज्ञेय रूप से जानने वाला हू, ऐसा जानने से ज्ञानी को दुख नही होता है । इससे सिद्ध होता है कि पर के कारण आत्मा मे कुछ भी नही हो सकता। फिर 'इससे यह का प्रश्न ज्ञानी को नही उठता, मात्र अज्ञानी को ही उठता है। ज्ञानी तो जानता है 'वस्तु की एकरूप स्थिति नही रहती है' परिणाम परिणामी का ही होता है, अन्य का नही। प्रश्न १२-"यह हो, यह ना हो" क्या ऐसा प्रश्न भी ज्ञान स्व-- भावी ज्ञान को उठता नही है ? उत्तर-(१) ससार मे मेरे मित्र ही हो, कोई दुश्मन ना हो। (२) सदा ज्ञानो हो हो, अज्ञानी ना हो। (३) मेरो अनुमोदना करने वाले हो, विरोध करने वाले ना हो (४) अच्छा ही हो, बुरा ना होवे। ऐसा अज्ञानी मानता है परन्तु ऐसा कभी हो नहीं सकता, क्योकि सब पदार्थ सत है, प्रत्येक पदार्थ कायम रहकर पलटना ही उसका स्वभाव है। क्योकि 'वस्तु की एकरूप स्थिति नही रहती है। ऐसा मानने वाले ज्ञानी जीव को 'यह हो, यह ना हो' ऐसा प्रश्न उठता ही नही । ज्ञानी तो समझता है कि ससार के सम्पूर्ण पदार्थ सत् है तथा सदा काल कायम रहते हुए पलटते रहना उनका स्वभाव है। फिर अमुक शेय हो और अमुक ना हो, ऐसा भेद पाडना वह ज्ञान स्वभाव मे नही है।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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