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________________ ( १६८ ) उत्तर-(१) ज्ञानी जानता है-सामने वाला जीव निन्दा के शब्दो को परिणमन करा नही सकता, क्योकि निन्दा के शब्दो का कर्ता भाषावर्गणा है और द्वप भाव का कर्त्ता अज्ञानी का चारित्र गुण है, इसलिए (दूसरे जीव पर) क्रोध करने का प्रश्न ही उपस्थित नही होता है। (२) सामने वाला जीव मुझ अरूपी ज्ञायक स्वभावी आत्मा को देख नहीं सकता, इसलिए जब वह देख नही सकता तो उसने मुझे कुछ कहा ही नहीं । अज्ञानी तो शरीर और नाम को उद्देश्य करके निन्दा करता है। परन्तु ज्ञानी विचारता है शरीर और नाम तो मेरा है ही नही । शरीर और नाम तो मेरे से पर है, इसलिए ज्ञानी को दुःख नही है। शरीर और नाम अपना नही होने पर भी उसे अपना मानने रूप भूल अज्ञानी जीव करता है, वह ही उसके दु ख का कारण है। (३) जिस समय इस जीव के ज्ञान का उघाड निन्दा के शब्दो का ज्ञान करने रूप होता है । उस समय वह शब्द ही सामने ज्ञय रूप होता है ऐसा ज्ञानी जानता है। लेकिन अज्ञानी विचारता है कि मेरी निन्दा ना हो अर्थात अव्यक्त रूप से ऐसा मानता है कि निन्दा के शब्दो वी ज्ञान पर्याय मुझे ना हो । ज्ञान पर्याय तो ज्ञान गुण की है अर्थात् ज्ञान गुण मुझे ना हो ऐसा माना। ज्ञान गुण आत्मा का है अर्थात् मेरी आत्मा मुझे ना हो ऐसा माना । ऐसी मान्यता वाला जीव आत्मघाती महा पापी है।। __ इससे यह सिद्ध हुआ सामने वाला जीव मेरी निन्दा करता है । ऐसा क्यो ? ऐसे प्रश्न का ज्ञान स्वभाव को जानने वाले के लिए स्थान ही नही । इस प्रकार समझकर ज्ञाता स्वभावी बनकर २११वे कलश का मर्म समझकर सुखी रहना ज्ञानी का कार्य है क्योकि ज्ञानी जानता है 'वस्तु की एक रूप स्थिति नही रहती और परिणाम परिणामी का ही होता है, अन्य का नही।'
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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