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________________ ( १६२ ) जीवो के सयोगो मे व ज्ञान के उघाड मे बड़ा अन्तर होने पर भी आत्म सन्मुखतारूप परिणाम समान होते है । अत सम्यक्त्व की प्राप्ति मे बाह्य सयोग बाधक-साधक नहीं होते है। जीव एक मात्र अपने त्रिकाली स्वभाव का आश्रय ले, तो तुरन्त सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसा जानकर सयोग और सयोगी भावो की रुचि का त्याग करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए। प्रश्न ७-क्या श्रेणी मांडने के लिए भी पुण्य कर्म, पुण्यभाव, पुण्य की सामग्री तथा परलक्षी ज्ञान के उघाड़ की किंचित् जरूरत नहीं है ? उत्तर--नहीं है । विचारिये-चार भावलिगी मुनि है। (१) एक मुनि को मति-श्रुतज्ञान का अल्प उघाड़ है और मुनि पदवी है। (२) दूसरे मुनि को मति श्रुत अवधिज्ञान का उघाड है और उपाध्याय पदवी है । (३) तीसरे मुनि को मति-श्रुत-मन पर्यय ज्ञान का उघाड है और कोई पदवी नही है (४) चौथे मुनि को मति श्रुत-अवधि-मन पर्यय चार ज्ञान का उघाड है और आचार्य पदवी है। विचारिये-चारो भावलिंगी मुनि है ज्ञान का उघाड कम-ज्यादा होने पर भी यह चारो मुनि एक ही साथ श्रेणी मांडे वो हवे गुणस्थान मे शुद्धि चारो मुनियो को समान ही होती है तो वह ज्ञान का उघाड और पदवी क्या कार्यकारी रहा ? कुछ भी नही। एक मात्र अपने त्रिकाली स्वभाव की एकाग्रता ही श्रेणी के लिए कार्यकारी है। [अ] जैसे-शिवभूति मुनि को ज्ञान का अल्प उघाड होने पर भी आत्मा मे स्थिरता करके अन्तर्मुहूर्त मे केवलज्ञान की प्राप्ति की (आ) दूसरी तरफ अवधिज्ञान-मन पर्ययाज्ञान मे उपयोग हो तो श्रेणी नही मांड सकता है। इससे सिद्ध हुआ श्रेणी मांडने मे भी परलक्षी ज्ञान के उघाड को, पुण्यकर्म, पुण्य भाव, पुण्य की सामग्री की किचित् मात्र आवश्यकता नही है एक मात्र आत्मा मे एकाग्रता की ही आवश्यकता है।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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