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________________ ( १६० ) दसवाँ प्रकरण समयसार गा० १६० का रहस्य क्या है ? प्रश्न १ - समयसार गा० १६० पुण्य-पाप अधिकार की है, इसमें तेरा सर्वज्ञ सर्वदर्शी स्वभाव है यह कहने का क्या प्रयोजन है ? उ०- यह सर्वज्ञानी दशिभी, निजकर्म रज आच्छाद से संसार प्राप्त न जानता, वो सर्व को सब रीत से ॥ १६०॥ अर्थ - वह आत्मा स्वभाव से सर्व को देखने-जानने वाला है तथापि अपने कर्म मल से लिप्त होता हुआ व्याप्त होता हुआ, ससार को प्राप्त हुआ, वह सब प्रकार से सर्व को नही जानता । प्रश्न २ – पुण्य-पाप अधिकार मे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी की बात क्यों की ?. उत्तर- (१) जब तक जीव को पुण्य-पाप की रुचि रहेगी तब तक उसे सम्यग्दर्शन नही होगा और ( २ ) पर्याय मे जब तक पुण्य भाव रहेगा तब तक सर्वज्ञ सर्वदर्शी नही बन सकता है। यह बताने के लिये पुण्य-पाप अधिकार मे सर्वज्ञ - सर्वदर्शी की बात की है । प्रश्न ३ – किस जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नही होगी ? उत्तर- ( १ ) जो जीव दया दान-पूजा-अणुव्रत महाव्रतादि विकारी भावो से धर्म की प्राप्ति होवे । ( २ ) ससार अवस्था मे शुभभाव कुछ तो मदद करता ही है । ( ३ ) शुभ करते-करते धर्म की प्राप्ति हो जावेगी आदि मान्यता वाले को पुण्य की रुचि है उसको कभी भी सम्यग्दर्शन होने का अवकाश नही है । प्रश्न ४- गा० १६० में से दो बोल कौन-कौन से निकलते हैं ? उत्तर -- ( १ ) जब तक जीव को पर लक्षी ज्ञान और पुण्य की मिठास रहेगी तब तक उसे सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी की श्रद्धा नही हो सकती अर्थात् जव तक जीव को परलक्षी ज्ञान के उघाड की रुचि,
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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