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प्रश्न ८५-जैसा वस्तु स्वरूप हैं वैसा मानो तो धूप चढाना सार्थक है; 'वस्तु स्वरूप, क्या है ?
उत्तर-- "सब पदार्थ अपने-अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने-अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं-स्पर्श करते है। तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नही करते" ऐसा जाने-माने तब धूप से भगवान की पूजा की ऐसा कहा जा सकता है।
प्रश्न ८६-'विभाव परिणति विनाशनाय धूपम्' का कवित्त क्या है ? उ.--जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी।
से राग द्वेष किया करता, जव परिणित होतो जड़ देरी ॥ यो भावकर्म या भावमरण, सदियो से करता आया है। निज अनुपम गन्ध अनल से प्रभु, पर-गन्ध जलाने आया हूं।
प्रश्न ८७-फल द्वारा पूजा करते समय हमारी भावना कैसी होनी चाहिए?
उत्तर-प्रभो | मुझे देवगति की प्राप्ति हो, ससार मे सब प्रकार की अनुकूलता मिले, व्यापार आदि अच्छा चले, इत्यादि कोई भी सासारिक फल प्राप्त करने की मुझे अभिलाषा नही है । किन्तु मुझे एकमात्र मोक्षफल की प्राप्ति हो-ऐसी भावना हमारी फल द्वारा पूजा • करते समय होनी चाहिए।
प्रश्न ८८-फल चढ़ाने का रहस्य क्या है ?
उत्तर-जैसे--(१) प्रथम खेत को जोतकर, साफ करके जमीन को पोला बनाया जाता है। (२. फिर पानी दिया जाता है । (३) फिर जब बीज बोते हैं तब वृक्ष होता है (४) बाद मे वृक्ष पर फल
आता है, उसी प्रकार (१) प्रथम शास्त्रो मे जो बाते बतायी हैं तथा -देव-गुरु जो कहते है उसे प्रमाण माने । अपनी समझ मे न आवे उसे असत्य ना कहे। देव-गुरु-शास्त्र की जो आज्ञा हो उसे ध्यानपूर्वक सुने