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स्वरूप है वैसा ही दृष्टि मे आ जाता है तब 'अज्ञान अन्धकार विनाश नाय दीपम निर्वपामीति स्वाहा' कहना ठीक है ।
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प्रश्न ८१ - धूप द्वारा पूजा करते समय हमारी भावना कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर - जैसे - अग्नि मे जलते समय भी धूप अपना सुगंधमय स्वभाव को नही छोडती, वैसे ही बाह्य मे कितना ही प्रतिकूल सयोग हो, तो भी मैं अपने ज्ञान स्वभाव को कभी नही छोडू गा - ऐसी भावना धूप चढाते समय हमारी होनी चाहिए ।
प्रश्न ८२ - धूप से भगवान की पूजा कौन कर सकता है ?
उत्तर - मैं कौन हू ? मेरा स्वरूप क्या है ? यह चरित्र कैसे बन रहा है ? ये मेरे भाव होते हैं उनका क्या फल लगेगा ? मैं दुखी हो रहा हू, सो दुख दूर होने का क्या उपाय है ? इतनी बातो का निर्णय करके अपने सन्मुख होवे तो धूप से भगवान की पूजा की ।
प्रश्न ८३ - चौबीसी की पूजा मे 'मिस धूम करम जरि जाहि' का ' का क्या अर्थ है ?
उत्तर -- द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म से पृथकपने का अनुभव -- ज्ञान वर्तता हो, तो "मिस धूम कर्म जरि जाहि" कहा जा सकता है । प्रश्न ८४ -- हम जो अग्नि मे धूप चढ़ाते हैं क्या उससे कर्मों का नाश नही होता है ?
उत्तर- धूप, अग्नि, हाथ का उठना आदि पुद्गल की क्रिया है । धूप चढ़ाने का मन्द कषाय का भाव पुण्यभाव है । पर और विकारी क्रियाओ से कभी भी कर्मों का नाश नहीं होता है । वल्कि इन कार्यों को मैं करता हू यह मान्यता मिथ्यात्व का महान पाप है । इसलिएपात्र जीवो को पर और विकार से रहित मेरा आत्मस्वभाव है ऐसा जानकर उसका आश्रय ले तो निमित्त रूप से कहा जाता है कि कर्मों का अभाव किया, तब धूप से पूजा की ऐसा बोला जाता है ।