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________________ ( १५३) है । अपने स्वभाव का आश्रय लेने से मिथ्यात्वादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है तभी दीप से पूजा की ऐसा कहा जावेगा। प्रश्न ७५---क्या पर से उदासीन होने पर ही दीप से पूजा हो सकती है ? उत्तर-जैसे-दीपक वाह्य पदार्थ की असमीपता मे या समीपता मे अपने स्वरूप से ही प्रकाशित होता है । अपने स्वरूप से ही प्रकाशित दीपक को घट-पटादि बाह्य पदार्थ किंचित भी विक्रिया उत्पन्न नही कर सकते । उसी प्रकार अपने स्वरूप से ही जानने वाले आत्मा को वस्तु स्वभाव से ही विचित्र परिणति को प्राप्त ऐसे मनोहर या अमनोहर शब्दादि बाह्य पदार्थ किचित भी विक्रिया उत्पन्न नहीं कर सकते हैं क्योकि आत्मा दीपक की भांति पर के प्रति सदा ही उदासीन है ऐसा अनुभव करे तो दीप से भगवान की पूजा की। प्रश्न ७६-दीपक से हमें क्या शिक्षा मिलती है ? उत्तर-(अ) दीपक को तेल आदि पर पदार्थों की आवश्यकता पडती है तव वह प्रकाशित होता है किन्तु रत्न दीपक को तो उसके लिए कोई अन्य पदार्थ को किंचित मात्र भी आवश्यकता नही रहती है, क्योकि वह स्वय प्रकाशित है, वैसे ही आत्मा चैतन्य रत्न दीपक है वह स्वयं प्रकाशित है । उसको प्रकाशित करने के लिए अन्य पदार्थ को किचित मात्र भी आवश्यकता नही रहती है।। [आ] तेल आदि से जलता हुआ दीपक तो प्रचड वायु आदि कारणो से वुझ जाता है, किन्तु रत्नदीप को प्रचड वायु आदि नही बुझा सकती है, वैसे ही अनन्त प्रतिकूलता आने पर भी चैतन्य दीपक नही बुझ सकता है अर्थात् उसका सामर्थ्य कम नही होता है। [इ] तेल से जलते हुए दीपक मे से तो धुआँ इत्यादि कालिमा निकलती है, किन्तु रत्न दीपक मे जरा भी कालिमा नही निकलती है। वैसे ही चैतन्य दीपक मे भी मात्र मोह राग-द्वेप की कालिमा
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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