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के कारण प्रत्य बुद्धि चली सम्यज्ञान प्रगट दष्टि मे आवे,
( १५. ) पड़ी हुई होने पर भी, अन्धकार मे सब चीजे एक रूप भासती है। किन्तु प्रकाश होने पर, अनेक चीजे जो एकरूप भासती थी, वह प्रत्येक पृथक-पृथका जैसी जो है, वैसी ही दिखाई देने लगती है, उसी प्रकार अनादिकाल से एक-एक समय करके मिथ्यात्वरूपी महान अन्धकार के कारण छहो द्रव्यो के गुण-पर्यायो के साथ, आस्रव-बन्ध, पुण्य-पाप के साथ एकत्य वुद्धि चली आ रही है। यदि जीव अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान प्रगट करे, तो जैसा जिस द्रव्य, गुण और पर्याय का स्वरूप है वैसा ही दृष्टि मे आवे, तव दीप से भगवान आत्मा की पूजा की, ऐसा कहा जा सकता है।
प्रश्न ६६-जीव के विषय मे अज्ञान-नन्धकार क्या है ?
उत्तर-जीव तो त्रिकाल ज्ञान स्वरूप है उसके बदले शरीर है सो मै हू, शरीर के कार्य मै कर सकता हू, शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो; नाह्य अनुकूल सयोगो से मैं सुखी, बाह्य प्रतिकूल सयोगो से मै दुखी, मै निर्धन, मैं धनवान, मै बलवान, मै मनुष्य, मैं सुन्दर हू। मै उपदेश देता हू; मैं चार हाथ जमीन देखकर चलता हू, मै सुवह उठता हू, मैं नहाता हूं, मैं कपडे पहनता हू, मैं रोटी बनाती हू, मै व्यापार करता हू, मै सामायिक करता हू, मैं पाठ करता हू-आदि क्रियाओ मे अपनापना मानता है। मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नही हैं, किन्तु पर पदार्थों के परिणाम है। उन्हे आत्मा का परिणाम मानना, यह जीव के विषय मे अज्ञान-अन्धकार है।
प्रश्न ६७-नीव के विषय का अज्ञान अन्धकार कैसे मिटे ?
उत्तर- मैं ज्ञाता-दृष्टा हू, शरीर-मन-वाणी मेरी मूर्ति नहीं है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनेक गुणो के अभेद पिण्ड की मेरी मूर्ति है। मै सर्वज्ञ स्वभावी अनुपम है। मेरा अनन्त जीबो, अनन्तान्त पुद्गलो धर्म-अधर्म-आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्यो से किसी भी प्रकार का किसी भी अपेक्षा कर्ता-कर्म