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________________ ( १४६ ) संक्लेशरूप परिणाम द्वारा पहले ही बाधा है जो आयुकर्म अथवा असाता - साता कर्म, उस कर्म के उदय से इस जीव को मरण- जीवन, सुख दुख होता है। इसमें जीव की वर्तमान चतुराई जरा भी कार्यकारी नही है । जो जीव इसमे अपनी चतुराई रखते हैं वे ( नियतम् आत्महनो भवन्ति ) अपने आत्म को नाश करने वाले है । ऐसा कलश १६९ मे कहा है । प्रश्न ६१ -- बाह्य सामग्री मिलाने हटाने में जीव की चतुराई कार्यकारी नहीं है इसकी स्पष्टता के लिए कहाँ देखें ? उत्तर - समयसार कलश टीका कलश १६५ से १७३ तक देखें । प्रश्न ६२ -- क्या आत्मा के आहारादि का परिग्रह नहीं है ? उत्तर - आत्मा के स्वभाव मे तथा दृष्टिवन्त ज्ञानियों को आहारादिक का परिग्रह नही है, क्योकि ज्ञानी को समयसार गा० २१२ मे "अनिच्छक अपरिग्रही कहा है" ज्ञानी भोजन को नही चाहता, इस लिए ज्ञानी को भोजन का परिग्रह नही है वह तो ज्ञायक है । प्रश्न ६३ -- क्या अनाहारी पद के लिए नैवेद्य चढ़ाया जाता है ? उत्तर - हाँ भाई ! अनाहारी पद के लिए नैवेद्य चढाया जाता है । इसलिए अनाहारीपद का अनुभव हुए बिना नैवेद्य से यथार्थ पूजा नही हो सकती है । प्रश्न ६४ - ' क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम् का कवित्त क्या है ? उ० -अब तक अगणित जड़ द्रव्यो से, प्रभु भूख न मेरी शान्त हुई । तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥ युग-युग से इच्छा सागर मे, प्रभु गोते खाता आया हूं । पंचेन्द्रिय मन के षट्स तज, अनुपम रस पीने आया हू ॥ दीप प्रश्न ६५ - 'दीप' से भगवान की पूजा की यह कब कहा जा सकता है ? 1 उत्तर - जैसे- एक कमरे मे सैकडों वर्षों मे अन्धेरे मे अनेक वस्तुए
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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