________________
( १४५ )
भगवान की यथार्थ पूजा की - ऐसा कहा जा सकता है ।
प्रश्न ४६ - सम्यग्दृष्टि का भव बिगड़ता भी नही और बढ़ता भी नहीं, ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उत्तर - जब स्वभाव मे भव नही और भव का भाव नही है । तब स्वभाव दृष्टिवन्त को भी भव नही और भव का भाव नही है क्योकि स्वभाव दृष्टिवन्त तिर्यचादि मे जाता नही । सम्यग्दर्शन होने पर अभवो मे ही मोक्ष हो जाता है तथा समयसार कलश १६८ मे " सहिमुक्त एव " ऐसा कहा है । इसलिए दृष्टिवन्त ही अक्षत से पूजा करने लायक है । मिथ्यादृष्टि अक्षत से भगवान की यथार्थ पूजा करने लायक नही है ।
प्रश्न ४७ - 'मान कषाय मल विनाशनाय अक्षतम् का कवित्त क्या है ?
उत्तर
उज्ज्वल हूं कुन्द धवल हूं प्रभु, पर से न लगा हूं किंचित् भी । फिर भी अनुकूल लगे उन पर करता अभिमान निरन्तर हो || जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव को खण्डित काया | निज शाश्वत अक्षय निधि पाने, अब दास घरण रज मे आया ॥
प्रश्न ४८ - अक्षत से पूजा का फल क्या है ?
उत्तर - मान रहित मेरी आत्मा का स्वभाव है । ऐसा पर्याय मे परम अक्षय पद प्राप्त करना ही अक्षत से भगवान की पूज का फल है ।
पुष्प
प्रश्न ४६ - पुष्प से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- दुनिया मे लोहबाण से साधारणतया मानव मादा है लेकिन कामदेव के पास कोमल पुष्प का बाप है।
लग जावे, वह मर जावे । पुष्प चढ़ाने का तात्पर्य यह है