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पदार्थों के साथ एकत्वबुद्धि है। आधि व्याधि और उपाधि के साथ एकत्वबुद्धि को छोडकर अपने समाधि स्वरूप ज्ञायक भगवान के साथ एकत्व करना, वह समाधि है। जब तक यह तीन ताप रहेगे तव तक वह चन्दन से पूजा करने का अधिकारी नही है । पात्र जीव तीन ताप रहित समाधि स्वरूप का श्रद्धान-ज्ञान आचरण करे, तब चन्दन से भगवान की पूजा की, ऐसा कहला सकता है ?
प्रश्न ३४-चन्दन क्या शिक्षा देता है ?
उत्तर-जैसे-चन्दन को कूड़े के ढेर पर गेरा जावे, घिसा जावे जलाया जावे, तो भी चन्दन अपने सुगन्धमयो स्वभाव को नहीं छोडता है । वह अपने को काटने वाली कुल्हाडो को भी सुगधित बना देता है, ऐसा चन्दन का स्वभाव है उसी प्रकार आत्मा को कैसी भी प्रतिकूलता का सयोग प्राप्त होवे तो भी, अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को ना छोडे तो चन्दन से भगवान की पूजा की कहा जावेगा।
प्रश्न ३५-चन्दन, चन्दन चढाने के विषय में क्या शिक्षा देता
उ०-घृष्ट घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारु गंधम् ।
कृष्ट कृष्ट पुनरपि पुनः स्वादु चैवेक्षु दण्डम् ।। दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काचनं कान्तवर्णम् ।
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ।। अर्थ-हे आत्मा, तुम्हे चन्दन के समान कोई घिसता नही, गन्ने के समान कोई पेलता नहीं; और सोने के समान दग्ध नहीं करता है फिर तुम अपने ज्ञायक स्वभाव को छोडकर पर मे, शुभाशुभ विकारी भावो मे क्यो पागल बनते हो ? नही बनना चाहिए। तभी चन्दन से पूजा की, ऐसा कहा जा सकता है।
प्रश्न ३६-अपने स्वभाव को जाने-माने बिना चन्दन से पूजा का अधिकारी नहीं है, जरा स्पष्ट रूप से समझामो ?