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एकत्व निश्चय गत समय, सर्वत्र सुन्दर लोक में । उससे बने बंधन कथा, जू विरोधनी एकत्व में ॥३॥ है सर्व श्रुत-परिचित अनुभूत, भोग बंधन की कथा । पर से जुदा एकत्व की, उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥४॥ ऐसा विचार आते ही स्वरूप मे स्थिरता होते ही जंगल की राह ली ओर जिनेश्वरी दीक्षा धारण की । प्रत्येक प्राणी को नमि राजा के समान एकत्व - विभक्त रूप अपनी आत्मा का निर्णय करके पर्याय मे जो राग रूपी दाह ज्वर है । उसे नष्ट करे तो चन्दन से भगवान की यथार्थ पूजा की ऐसा कहने मे आता है ।
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प्रश्न ३२ - 'ससार ताप विनाशनाय चन्दनम् कब कहा जा सकता है ?
उत्तर- जिस प्रकार चन्दन का इच्छुक पुरुष जब चन्दन लेनें जगल मे जाता है । तो वह अपने साथ गरुड या मोर को ले जाता है, क्योकि गरुड या मोर की आवाज के सुनते ही चन्दन पर लिपटे हुए, अजगर और साँप भाग जाते है । यदि चन्दन का इच्छुक पुरुष गरुड -या मोर को साथ ना ले जावे तो वह चन्दन को प्राप्त नहीं कर सकता ! उसी प्रकार अनादिकाल से एक. एक समय करके मिथ्यात्वरूपी अजगर राग-द्वेष रूपी साप, चन्दन के समान भगवान आत्मा के ऊपर लिपटे हुए हैं। यदि जीव अपने ज्ञायक स्वभाव का टकारा मारे तो मिथ्यात्व रूपी अजगर, राग-द्व ेष रूपी साँप स्वय भाग जाते है तभी 'ससार ताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा' कहना सार्थक है । अज्ञानी ने अनन्तवार चन्दन से भगवान की पूजा की किन्तु वह भोग निमित्त रही । व्यर्थ हो गई ।
प्रश्न ३३ - श्या आधि, व्याधि और उपाधि रहित, समाधि हुए 'बिना चन्दन से पूजा करना व्यर्थ है ?
उत्तर- (१) आधि = मन के विकल्पो के साथ एकत्वबुद्धि है । (२) व्याधि + शरीर के साथ एकत्वबुद्धि है । (३) उपाधि-- पर