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के पास पहुंचा। वहाँ देखा, कि रोजाना सुबह से ही भीड़ लग जाती है, उसने बडी कोशिश की वह अन्दर चला जावे, लेकिन उसे कामयाबी नही हुई। इस प्रकार करते-करते दस दिन समाप्त हो गये, लेकिन ब्राह्मण के अन्दर जाने का नम्बर न आया। ब्राह्मण बहुत परेशान हुआ तव एक दिन वह साय काल से ही वहाँ आ गया और जव प्रात काल दरवाजा खुला, तत्काल अन्दर दाखिल हो गया। राजा ने उसका नया श्लोक देखा, वह अच्छा भी नहीं था, लेकिन गरीव ब्राह्मण समझकर राजा को दया आ गयी। राजा ने उसे सवा लाख रुपया देने के लिए खजान्ची के नाम पर्चा दे दिया। गरीव ब्राह्मण खुशी खुशी होकर खजान्ची के पास गया और पर्चा सवा लाख रुपया देने का था, वह दिया । ब्राह्मण के श्लोक को देखकर खजान्ची ने विचारा, कि राजा वडा मूर्ख है । श्लोक किसी भी काम का नही है। राजा व्यर्थ मे धन लुटाता है । ऐसा विचार करके खजान्ची ने रुपया नही दिया
और एक पच पर लिखा कि 'आपदथ धन रक्षेत" अर्थात आपत्ति के ‘समय काम आवे, इसलिए धन की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा लिख कर ब्राह्मण को दिया, कि राजा के पास जाओ और यह पर्चा दे देना । वह राजा के पास गया और राजा ने पर्चा देखकर एक पक्ति और वढा दी, लिखा कि "भागवन्त क्व चापदः" अर्थात भाग्य वत को आपत्ति कहाँ आती हैं। तथा दुबारा आने के कारण सवा लाख रुपया की बजाय ढाई लाख रुपया देने को लिखा। ब्राह्मण खजान्ची के पास गया, लेकिन खजान्ची आसानी से रुपया देने वाला नही था। उसने पर्चा देखकर फिर लिखा कि "कदापि कपितो देव" अर्थात कदापि देव कोपायमान हो गया, तो आपत्ति आयेगी। ऐसा लिखकर ब्राह्मण को फिर राजा के पास जाने को कहा। ब्राह्मण राजा के पास गया, राजा ने पर्चा देखकर उस श्लोक को पूरा कर दिया । लिखा कि “सचितोऽपि विनश्यति" अर्थात तब सचय किया हुआ भी धन नष्ट हो जावेगा। तथा तीसरी बार आने के कारण ढाई लाख रुपया की